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________________ ३२ पुरातन जैनवाक्य-सूची विभाग' के निम्न पद्योंमे पाया जाता है, जो कि सर्वनन्दीके लोकविभागको सामने रख कर ही भाषा के परिवर्तनद्वारा रचा गया है :-) शीत्यग्रेशकाब्दानां सिद्धमेतच्छतत्रये ॥ ४ ॥ तिलोयपण्णत्तीकी उक्त दोनो गाथाश्रमे जिन विशेष वर्णनोका उल्लेख ' लोकविभाग' आदि ग्रंथोंके आधारपर किया गया है वे सब संस्कृत लोकविभागमे भी पाये जाते हैं । और इससे यह बात और भी स्पष्ट हो जाती है कि संस्कृतका उपलब्ध लोकविभाग उक्त प्राकृत लोकविभागको सामने रखकर ही लिखा गया है।) इस सम्बन्ध मे एक बात और भी प्रकट कर देन की है और वह यह कि संस्कृत लोकविभाग के अन्तमे उक्त दोनो पद्यो के बाद एक पद्य निम्न प्रकार दिया है : १ वैश्ये स्थिते रवि वृषभे च जीवे, राजोत्तरेपु सितपक्षमुपेत्य चन्द्रे । ग्रामे च पाटलिकनामनि पाणरा, शास्त्रं पुरा लिखितवान्मु निसर्वनन्दी ||३|| संवत्सरे तु द्वाविंशे काञ्चीश - सिंहवर्मणः । - इसमे प्रथकी सख्या १५३६ श्लोक- परिमाण बतलाई है, जबकि उपलब्ध 3 संस्कृतलोकविभागमे वह २०३० के करीब जान पड़ती है । मालूम होता है कि यह १५३६ की श्लोकसख्या उसी पुराने प्राकृत लोकविभागकी है - यहाँ उसके संख्यासूचक पद्यका भी अनुवाद करके रख दिया है। इस संस्कृत ग्रंथमे जो ५०० श्लोक जितना पाठ अधिक है वह प्रायः उन ‘उक्त ं च' पद्योंका परिमाण है जो इस ग्रंथ मे दूसरे ग्रंथोंसे उद्धृत करके रखे गये ६ – १०० स अधिक गाथाएँ तो तिलोयपण्णत्तीकी ही है, २०० के करीब श्लोक भगवज्जिनसेन के श्रादिपुराणसे उठाकर रक्खे गये है और शेष ऊपर के पद्य तिलोयसार (त्रिलोकसार) और जबूदा वपण्णत्ती (जम्बुद्वीपप्रज्ञप्ति) आदि ग्रंथोसे लिये गये हैं । इस तरह इस प्रथमे भाषा के परिवर्तन और दूसरे ग्रंथों से कुछ पद्योके 'उक्त' च' रूपसे उद्धरणके सिवाय सिहसूरकी प्रायः और कुछ भी कृति मालूम नहीं होती । बहुत संभव है कि 'उक्त ं च' रूपसे जो यह पद्योंका संग्रह पाया जाता है वह स्वयं सिंहसूर मुनिके द्वारा न किया गया हो, बल्कि बादको किसी दूसरे ही विद्वानके द्वारा अपने तथा दूसरो के विशेष उपयोग के लिये किया गया हो; क्योंकि ऋषि सिंहसूर जब एक प्राकृत प्रथका संस्कृत मे - मात्र भाषाके परिवर्तन रूपसे ही - अनुवाद करने बैठें - व्याख्यान नहीं, तब उनके लिये यह संभावना बहुत ही कम जान पड़ती है कि वे दूसरे प्राकृतादि ग्रंथोंपर से तुलनादिके लिये कुछ वाक्योको स्वयं पंचदशशतान्याहुः पट्टिशदधिकानि वै । शास्त्रस्य संग्रहस्त्वेदं छंदसानुष्टुभेन च ॥ ५ ॥ २ नामके अधूरेपन की कल्पना की है और “पूरा नाम शायद सिंहनन्दि हो” ऐसा सुझाया है । छदकी कठिनाईका हेतु कुछ भी समीचीन मालूम नहीं होता, क्योंकि सिहनन्दि और सिंहसेन -जैसे नामका वह सहज ही समावेश किया जा सकता था । "श्राचार्यावलिकागतं विरचितं तत्सिंहसूरर्षिणा, भाषायाः परिवर्तनेन निपुणैः सम्मानितं साधुभिः ।” "दशैवैष सहस्राणि मूलेऽग्रेपि पृथुर्मतः । " - प्रकरण २ ' अन्त्यकायप्रमाणात्तु किञ्चित्सकुचितात्मकाः ॥” – प्रकरण ११ ३ देखो, श्रारा जैन सिद्धान्तभवनकी प्रति और उसपर से उतारी हुई वीरसेवामन्दिरकी प्रति ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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