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________________ ३४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची उल्लेख न किया जाता । अस्तु वीर-निर्वाण शकराजा अथवा शक संवत्से ६०५ व ५ महीने पहले हुआ है, जिसका उल्लेख तिलोयपण्णत्तीमें भी पाया जाता है। एक हजार वर्षमेसे इस सख्याको घटानेपर ३६४ वर्षे ७ महीने अवशिष्ट रहते हैं । यही (शक संवत् ३६५) कल्किकी मत्युका समय है । और इसलिये तिलोयपएणत्तीका. रचनाकाल शक सं० ४.५ (वि० सं०५४०) के करीषका जान पड़ता है जब कि लोकविभागको बने हुए २५ वर्षके करीब हो चुके थे, और यह अर्सा लोकविभागकी प्रसिद्धि तथा. यतिवृषभ तक उसकी पहुँचके लिये पर्याप्त है। (ख) यतिवृषभ और कुन्दकुन्दके समय-सम्बन्धमें प्रेमीजीके मतकी आलोचना ये यतिवृषभ कुन्दकुन्दाचार्यसे २०० वर्षसे भी अधिक समय वाद हुए हैं, इस बात को सिद्ध करनेके लिये मैने 'श्रीकुन्दकुन्द और यतिवृपभमे पूर्ववर्ती कौन ?' नामका एक लेख आजसे कोई । वर्ष पहले लिखा था। उसमे, इन्द्रनन्दि-श्र तावतारके कुछ गलत तथा भ्रान्त उल्लेखोंपरसे बनी हुई और श्रीधर-श्र तावतारके उससे भी अधिक गलत एव आपत्ति के योग्य उल्लेखोंपरसे पुष्ट हुई कुछ विद्वानोंकी गलत धारणाको स्पष्ट करते हुए, मैंने सुहवर पं० नाथूरामजी प्रेमीका उन युक्तियोंपर विचार किया था जिनके आधारपर वे कुन्दकुन्दको यतिवृपभके बादका विद्वान बतलाते हैं। उनमेसे एक युक्ति तो इन्द्रनन्दि-श्र तावतारपर ही अपना आधार रखती है; दूसरी प्रवचनसारकी 'एस सुरासुर' नामकी आद्य मंगल-गाथासे सम्बन्धित है, जो तिलोयपएणत्तीके अन्तिम अधिकारमे भी पाई जाती है और जिसे प्रेमी जीने तिलोयपण्णत्तीपरसे ही प्रचचनसारमे लीगई लिखा था; और तीसरी कुन्दकुन्दके नियमसारको निम्न गाथा से सम्बन्ध रखती है, मिममे प्रयुक्त हुए 'लोयविभागेसु' पदमें प्रेमीजी सर्वनन्दी के लोकविभाग' प्रथका उल्लेख समझते हैं और चूंकि उसकी रचना शक सं० ३८० में हुई है अतः कुन्दकुन्दाचार्यको शक सं० ३८० (वि० सं० ५१५) के बादका विद्वान ठहराते हैं: चउदसभेदा भणिदा तेरिच्छा सुरगणा चउन्भेदा । एदेसि वित्थारं लोयविभागेसु णादव्वं ॥१७॥ ___ 'एस सुरासुर' नामकी गाथाको कुन्दकुन्दकी सिद्ध करनेके लिये मैंने जो युक्तियाँ दी थीं उनपरसे प्रेमीजीका विचार अपनी दूसरी युक्ति के सम्बन्धमें तो बदल गया है, ऐसा उनके 'जैनसाहित्य और इतिहास' नामक ग्रन्थके प्रथम लेख 'लोकविभाग और तिलोयपएणत्ति' परसे जाना जाता है। उसमे उन्होंने उक्त गाथाकी स्थितिको प्रवचनसारमें सुदृढ स्वीकार किया है, उसके अभावमे प्रवचनसारकी दूसरी गाथा 'सेसे पुण तित्थयरे' को लटकती हुई माना है और तिलोयपएणत्तीके अन्तिम अधिकारके अन्तमे पाई जाने वाली कुन्थुनाथसे वर्द्धमान तककी स्तुति-विषयक ८ गाथाओं के सम्बन्धमें, जिनमें उक्त गाथा भी शामिल है, लिखा है कि- 'बहुत संभव है कि ये सब गाथाएँ मूलग्रंथकी न हो, पीछेसे किसीने जोड़ दी हों और उनमें प्रवचनसारको उक्त गाथा आ गई हो।" -J१ णिवाणे वीरजिणे छब्बास-सदेसु पंच-वरसेसु । पण-मासेसु गदेसु संजादो सग-णित्रो अहवा ॥-तिलोयपण्णत्ती पण-छस्सय-वस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिव्वुइदो । सगराजो तो कक्की चदुणवतियमहियसगमासं ॥-त्रिलोकसार वीरनिर्वाण और शक सवतकी विशेष जानकारीके लिये, लेग्वककी 'भगवान महावीर और उनका समय' नामकी पुस्तक देखनी चाहिये । ___ २ देखो, अनेकान्त वर्ष २ नवम्बर सन् १९३८ की किरण नं. १
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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