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________________ प्रस्तावना भेदोंकी बातोसे भी अवगत थे, यह सहज ही मे जाना जाता है । वीरसेनने यतिवृषभको एक बहुत प्रामाणिक आचार्य के रूपमें उल्लेखित किया है और एक प्रसगपर राग-प-मोह के अभावको उनकी वचन-प्रमाणतामे कारण बतलाया है' । इन सब बातोंसे आचार्य यतिवृपभका महत्व स्वतः ख्यापित हो जाता है। । अब देखना यह है कि यतिवृपभ कब हुए है और कब उनकी यह तिलोयपएणत्ती बनी है, जिसके वाक्योंको धवलाादकमें उद्धृत करते हुए अनेक स्थानोंपर श्रीवीरसेनने उसे 'तिलोयपण्णत्तिसुत्त' सूचित किया है । यतिवृषभके गुरुओंमेसे यदि किसीका भी समय सुनिश्चित होता तो इस विपयका कितना ही काम निकल जाता, परन्तु उनका भी समय सुनिश्चित नहीं है ।श्वेिताम्बर पट्टावलियोमेसे 'कल्पसूत्रस्थावरावली' और 'पट्टावलीसारोद्धार' जैसी कितनी ही प्राचीन तथा प्रधान पट्टावलियोमे तो आर्यमंगु और आर्यनागहस्तिका नाम ही नहीं है, किसी किसी पट्टावलोमे एकका नाम है तो दूसरेका नहीं और जिनमे दोनोंका नाम है उनमेसे कोई दोनोके मध्यमे एक प्राचार्यका और कोई एकसे अधिक आचार्योंका नामोल्लेख करती है। कोई कोई पट्टावली समयका निर्देश ही नहीं करती और जो करती है उनमे इन दोनोंके समयोंमे परस्पर अन्तर भी पाया जाता है-जैसे आर्यमगु का समय तपागच्छ-पट्टावलीमे वीरनिर्वाणसे ४६७ वर्पपर और सिरिसमाकाल-ममणसघथय' की अवचूरिमे ४५० पर बतलाया है । और दोनोंका एक समय तो किसी भी श्वे० पट्टावलीसे उपलब्ध नहीं होता बल्कि दोनोंमे १५० या १३० वर्पक करीबका अन्तराल पाया जाता है, जब कि दिगम्बर परम्पराका स्पष्ट उल्लेख दोनोंको यतिवृपभके गुरुरूपमे प्रायः समकालीन बतलाता है। ऐसी स्थितिमे श्वे० पट्टावलियोंको उक्त दोनों आचार्यों के समयादिविषयमे विश्वसनीय नहीं कहा जा सकता। और इसलिये यतिवृपभादिके समयका अव तिलोयपएणत्तीके उल्लेखोपरसे अथवा उसके अन्तःपरीक्षणपरसे ही अनुसंधान करना होगा) तदनुसार ही नोचे उसका यत्न किया जाता है : (१) तिलोयपएणत्तीके अनेक पद्योंमे 'संगाइणी' तथा 'लोकविनिश्चय' अथके साथ 'लोकविभाग' नामके प्रथका भी स्पष्ट उल्लेख्न पाया जाता है। यथा : जलसिहरे विक्वंभो जलणिहिणो जोयणा दससहस्सा । एवं संगाइणिए लोयविभाए विणिद्दिढें ॥ अ० ४॥ लोयविणिच्छय-गंथे लोयविभागम्मि सव्वसिद्धाणं । ओगाहण-परिमाणं भणिदं किंचूणचरिमदेहसमो ॥ १० ॥ (यह 'लोकविभाग' प्रथ उस प्राकृत लोकविभाग ग्रंथसे भिन्न मालूम नहीं होता, जिसे प्राचीन समयमें सर्वनन्दी प्राचार्य ने लिखा (ग्चा) था, जो कांचीके राजा सिंहवर्माके • राज्यके २२ वें वर्ष-उस समय जबकि उत्तरापाढ नक्षत्र में शनिश्चर वृषराशिमें वृहस्पति, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रमे चन्द्रमा था, शुक्लपक्ष था-शक संवत् ३८० में लिखकर पाणराष्टके पाटलिक ग्राममे पूरा किया गया था और जिसका उल्लेख सिंहसूर के उस संस्कृत 'लोक१ "कुदो णव्व दे ? एदम्हादो चेव जइवसहाइरियमुहकमलविणिग्गयचुण्णिसुत्तादो । चुण्णिसुत्तमएणहा कि ण होदि ? ण, रागदोसमोहाभावेण पमाणत्तमुवगय-जइवसह-वयणस्स असच्चत्तविरोहादो।" -जयघ० प्र० पृ० ४६ २ देखो, पट्टावलीसमुच्चय'। ३ 'सिंहसूरर्षिणा' पदपरसे 'मिहसूर' नामकी उपलब्धि होती है--सिंहसूरिकी नहीं, जिसके 'सूर' पदको 'श्राचार्य' पदका वाचक समझकर प० नाथूरामजी प्रेमीने (जैन साहित्य और इतिहास पृ० ५ पर)
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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