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________________ प्रस्तावना कोटिसे निकल गये हैं। हॉ, दो चार वाक्य ऐसे भी हैं जो अक्षरशः समान हैं, परन्तु उनके कुछ अक्षरोंको एक साथ अलग अलग रखनेपर उनके अर्थमें अन्तर पड़ जाता है, जैसे समयसारकी 'जो सो दुणेहभावो' नामकी गाथा नं० २४० अक्षरदृष्टिसे उसीकी गाथा नं० २४५ के बिल्कुल समकक्ष है; परन्तु पिछली गाथामें 'दु' को 'णेहभावो' के साथ और 'तस्स' को 'रयबधो' के साथ मिलाकर रखनेपर पहली गाथासे भिन्न अर्थ हो जाता है। ऐसे अक्षरोंकी पूर्णतः समानताके कारण वाक्योंपर समानताके ही चिन्ह डले है । समानताद्योतक *, x, +, +, t इस प्रकारके चिन्ह पृष्ट ४६ से प्रारम्भ किये गये हैं । इसके पहले उनकी कल्पना उत्पन्न जरूर हुई थी, परन्तु परिश्रमके भयसे स्थिर नहीं हो पाई थी; बादको उपयोगियाकी दृष्टिने जोर पकड़ा और उक्त कल्पनाको चरितार्थ करना ही स्थिर हुआ। समानता-द्योतक इन चिन्होंके लगानेमें यद्यपि बहुत कुछ तुलनात्मक परिश्रम उठाना पड़ा है परन्तु इससे ग्रंथकी उपयोगिता भी बढ़ गई है, हर एक पाठक सहज हीमे यह मालूम कर सकता है कि जिन वाक्योंपर ये चिन्ह नहीं लगे हैं वे सब प्रारम्भमे समान दीखनेपर भी अपने पूर्णरूपमे समान नहीं हैं, और जो चिन्होंपरसे समान जाने जाते हैं वे भिन्न ग्रंथोंके वाक्य होनेपर उनमेसे एकके वाक्यको दूसरे ग्रन्थकारने अपनाया है अथवा वह बादको दूसरे ग्रंथमे किसी तरहपर प्रक्षिप्त हुआ है ।और इसका विशेष निर्णय उन्हें प्रथोंके स्थलोंपरसे उनकी विशेष स्थितिको देखने तथा जाँचनेसे हो सकेगा। एक दो जगह प्रेसकी असावधानीसे चिन्ह छूट गये है जैसे 'संकाइदोसरहियं' नामके वाक्योंपर, जो समान है, और एक दो स्थानोंपर वे आगे पीछे भी लग गये हैं, जैसे पृष्ठ ५२ के प्रथम कालममे 'एक्कं च ठिदिविसेसं' नामके जो तीन वाक्य हैं उनमें ऊपरके कसायपाहुड वाले दोनों वाक्योंपर समानताका चिन्ह : लग गया है जब कि वह नीचेके दो वाक्योंपर लगना चाहिये था, जिनमें दूसरा 'लद्धिसार' का वाक्य नं० ४०१ है और वह कसायपाहुडपरसे अपनाया गया है। ऐसी एक दो चिन्होंकी गलती ग्रंथपरसे सहज ही मालूम की जा सकती है। अस्तु, जिन शुरूके ४८ पृष्ठोंपर ऐसे चिन्ह नहीं लग सके हैं उनपर विज्ञ पाठक स्वयं तुलना करके अपने अपने उपयोगके लिये वैसे वैसे चिन्ह लगा सकते हैं। ___इस पुरातन जैनवाक्यसूचीमें ६३ मूलग्रंथोंके पद्यवाक्योंकी अकारादिक्रमसे सूची है, जिनमे परमप्पयास (परमात्मप्रकाश), जोगसार, पाहुडदोहा, सावयधम्मदोहा और सुप्पहदोहा ये पाँच ग्रंथ अपभ्रश भाषाके और शेष सब प्राकृत भाषाके ग्रंथ है । अपभ्रंश भी प्राकृतका ही एक रूप है, इसीसे वाक्यसूचीका दूसरा नाम 'प्राकृतपद्यानुक्रमणी' दिया गया है। इन मूलग्रंथोंकी अनुक्रमसूची संस्कृत नाम तथा ग्रंथकारोंके नाम-सहित साथमे लगा दी गई है। हाँ, षटखण्डागममे भी, जो कि प्रायः गद्यसूत्रोंमे है, कुछ गाथासूत्र पाये जाते हैं। जिन गाथासूत्रोंको अभी तक स्पष्ट किया जा सका है उनकी एक अनुक्रमसूची भी परिशिष्ट नं० २ के रूपमे दे दी गई है। और इस तरह मूलपथ ६४ हो जाते हैं । इनके अलावा ४८ टीकादि ग्रंथोंपरसे भी ऐसे प्राकृत वाक्योंकी सूची की गई है जो उनमे 'उक्तं च' आदि रूपसे विना नाम-घामके उद्धृत हैं और जो सूचीके आधारभूत उक्त मूलग्रंथोंके वाक्य नहीं हैं। इन वाक्योंमे कुछ ऐसे वाक्योंको भी शामिल किया गया है जो यद्यपि उक्त ६३ मूलप्रथोंमेसे किसी न किसी ग्रंथकी वाक्य-सूचीमें पृ० १ से ३०८ तक आ चुके है परन्तु वे उस प्रथसे पहलेकी बनी हुई टीकाओंमे 'उक्त च' आदि रूपसे उद्धृत भी पाये जाते हैं और जिससे यह जाना जाता है कि ये वाक्य संभवतः और भी अधिक प्राचीन हैं और वाक्यसूचीके जिंस ग्रंथमे वे उपलब्ध होते हैं उसमें यदि प्रक्षिप्त नहीं हैं जैसे कि गोम्मटसारमें उपलब्ध होनेवाले धवलादिकके उद्धृत वाक्य-तो वे किसी अज्ञात प्राचीन ग्रंथ अथवा ग्रंथोंपरसे लिये जाकर उस प्रथका अंग बनाये गए हैं। और इसलिये वे ग्रंथ अन्वेपणीय
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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