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________________ १० पुरातन - जैनवाक्य-सूची हैं । ये टीकादि-ग्रंथोपलब्घ वाक्य परिशिष्ट नं० ३ में दिये गये हैं । और इन टीकादि-ग्रंथों की भी एक अलग सूची साथमें दे दी गई है । इनके अतिरिक्त धवला और जयधवला टीकाओंके मंगलादि-पद्योंकी एक अनुक्रमसूची भी परिशिष्ट न० ४ के रूपमें दे दी गई है। यह वाक्यसूची सब मिलाकर २५३५२ पद्य वाक्योंकी अनुक्रमणी है – उनके प्रथम चरणादिके रूपमें आद्याक्षरों की सूचिका है - जिनमे से २४६०८ वाक्योंके आधारभूत ग्रंथों और उनके कर्ताओंका पता तो मालूम है, परन्तु शेष ७४४ वाक्य ऐसे हैं जिनके मूलप्रथों तथा उनके कर्ताओं का पता अज्ञात है और ये ही वे वाक्य हैं जो टीकादि-ग्रंथोंमे उद्धृत मिलते हैं और जिनके मूलस्रोतकी खोज होनी चाहिये । इस सूची मे कुछ ऐसे वाक्य दर्ज होनेसे रह गये हैं जो मूलग्रंथों में 'उक्तं च ' रूपसे उद्धृत पाये जाते हैं -- जैसे कार्तिकेयानुप्रेक्षामें गाथा नं० ४०३ के बाद पाया जाने वाला 'जो गवि जादि वियारं' नामका वाक्यऔर इसका हमें खेद है । के इस ग्रंथ में जिन वाक्योंकी सूची दी गई है उनमेंसे प्रत्येक वाक्य के सामने भिन्न टाइपमें उसके प्रथका नाम सक्षिप्त अथवा संकेतितरूपमे दे दिया गया है - जैसे गोम्मटसारजीवकाण्डको गो० जी०, गोम्मटसार- कर्मकाण्डको गो० क०, गोम्मटसार - जीवकाण्डकी जीवतत्त्वप्रबोधिनी टीकाको गो० जी० जी०, मन्दप्रबोधिनी टीकाको गो० जी० म०, भगवती आराधना प्रथको भ० आ०, तिलोयपत्तीको तिलो० प०, और तिलोयसारको तिलो० सा० संकेत के द्वारा सूचित किया गया है। किसी किसी ग्रंथके लिये दो संकेतोंका भी प्रयोग हुआ है जैसे कसायपाहुडके लिये कसाय० तथा कसायपा०, यिमसार के लिये मि० तथा यिमसा० । साथ ही, ग्रंथनामके अनन्तर वाक्यके स्थलका निर्देश अंकों द्वारा किया गया है । जिन अङ्कोंके मध्य में डैश ( - ) है उनमें डैशका पूर्ववर्ती अ ग्रंथके अध्याय, अधिकार, परिच्छेद, पर्वादिकी क्रमसंख्याका सूचक है और उत्तरवर्ती अ उस अध्यायादि में उस वाक्य के क्रमिक नम्वरको सूचित करता है । और जिन मध्यमे डैश नहीं हैं वे उस ग्रंथमे उस वाक्यको क्रमसंख्या के ही सूचक हैं। ऐसे कोंके अनन्तर जहॉ कसायपाहुड जैसे ग्रंथके वाक्योंका उल्लेख करते हुए कटमें भी कुछ अंक दिये हैं वे उस ग्रंथके दूसरे क्रमके सूचक हैं, जो भाष्यगाथाओं को अलग करके मूल १८० गाथाका क्रम है । और जहाँ अङ्कोंके बाद कटमें कवर्गका कोई अक्षर दिया है उसे उस अङ्क नं० के अनन्तर बादको पाया जानेवाला वर्गक्रमाक स्थानीय पद्यवाक्य समझना चाहिये । कोई कोई वाक्य किसी एक ही ग्रंथप्रतिमें पाया गया है— दूसरीमें नहीं, उसका सूचक चिन्ह भी साथ में दे दिया गया है, जैसे तिलोयपण्णत्तीकी आगरा-प्रतिका सूचक चिन्ह A, बनारस प्रतिका सूचक B, सहारनपुर- प्रतिका सूचक S और देहली- प्रतिका सूचक 'दे० ' चिन्ह लगाया गया है। ग्रंथ नामादिविषयक इन सब संकेतोंकी एक विस्तृत संकेतसूची भी साथमे लगादी गई है, जिससे किसी भी वाक्य सम्बन्धी ग्रंथ अथवा विशिष्ट ग्रंथप्रतिको सहन मे ही मालूम किया जा सके। इस सूचीमें ग्रंथनामके सामने उस मुद्रित या हस्तलिखित ग्रंथप्रतिको भी सूचित कर दिया गया है जो आम तौरपर उस ग्रंथकी वाक्यसूची कार्यमे उपयुक्त हुई है । ३. प्राकृतमें वर्णविकार प्राकृत भाषामें वर्णविकार खूब चलता है - एक एक वर्ण (अक्षर) अनेक वर्णों ( अक्षरों ) के लिये काम आता अथवा उनके स्थानपर प्रयुक्त होता है और इसी तरह एक के लिये अनेक वर्ण भी काममें लाये जाते अथवा उसके स्थानपर प्रयुक्त होते हैं । उदाहरण
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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