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________________ पुरातन-जेमयावय-सूची हॉ एक वातकी सूचना कर देनी यहाँ आवश्यक है और वह यह कि जिन वाक्योंके कुछ अक्षरोंको गोल कट ( ) के भीतर रक्खा गया है वे या तो दूसरी ग्रंथप्रतिमे उपलब्ध होनेवाले पाठान्तरके सूचक हैं अथवा अशुद्ध पाठके स्थानमें अपनी ओरसे कल्पित करके रक्खे गये हैं—पाठान्तरके सूचक प्रायः उन्हें ही समझना चाहिये जिनके पूर्वमे पाठ प्रायः शुद्ध हैं। और जिन अक्षरोंको बड़ी व्रकट [ ] में दिया गया है वे वाक्योंके त्रुटित अंश है ,जिन्हें ग्रंथसगतिके अनुसार अपनी ओरसे पूरा करके रक्खा गया है। ___जॉच और संशोधनका यह गहनकार्य बहुत कुछ सावधानीसे किया जानेपर भी कुछ वाक्य सूचीसे छूट गये और कुछ प्रेसकी असावधानी तथा दृष्टिदोपके कारण संशोधित होनेसे रह गये और इस तरह अशुद्ध छप गये । जो वाक्य अशुद्ध छप गये उनके लिये एक 'शुद्धिपत्र' ग्रंथके अन्तमें लगा दिया गया है और जो वाक्य छूट गये उनकी पूर्ति परिशिष्ट नं. १ द्वारा की गई है। इस परिशिष्टमें अधिकांश वाक्य पंचसंग्रह और जंबूदीवपण्णत्तीके हैं, जो बादको आमेर (जयपुर) की प्राचीन प्रतियोंपरसे उपलब्ध हुए है और जिनके स्थानकी सूचना वाक्यसूचीमें प्रकाशित जिस जिस वाक्यके बाद वे उपलब्ध हुए हैं उनके आगे व्रकटमे क, ख आदि अक्षर जोड़कर की गई है। और इससे दो बातें फलित होती हैं--(१) एक तो यह कि इन ग्रंथोके अध्यायादि क्रमसे जो वाक्य-नम्बर सूचीमे मुद्रित हुए है वे सर्वथा अपरिवर्तनीय नहीं हैं, उनमे छूटे हुए वाक्योको शामिल करके प्रत्येक अध्यायादिके पद्य-नम्बरोका जो एक क्रम तैयार होवे उसके अनुसार उसमें परिवर्तन हो सकता है । (२) दूसरी यह कि अन्य ग्रंयोंकी प्राचीन प्रतियोमे भी कुछ ऐसे वाक्योका उपलब्ध होना संभव है जो वाक्यसूचीमे दर्ज न हो सके हो, और यह तभी हो सकता है जबकि उन उन ग्रथोंकी प्राचीन प्रतियोको खोजकर उन परसे जाँचका तुलनात्मक कार्य किया जाय । सच पूछा जाय तो जब तक प्रतियोंकी पूरी खोज होकर उनपरसे ग्रंथोके अच्छे प्रामाणिक संस्करण प्रकाशित नहीं होते तब तक साधारण प्रकाशनो और हस्तलिखित प्रतियोपरसे इन वाक्यसूचियोंके तैयार करनेमे तथा उनमे वाक्योको नम्बरित (क्रमाकोसे अङ्कित) करने में कुछ न कुछ असुविधा बनी ही रहेगी-उन्हें सर्वथा निरापद नहीं कहा जा सकता । और न प्रक्षिप्त अथवा उद्धृत कई जाने वाले वाक्योंके सम्बन्धमें कोई समुचित निर्णय ही दिया जा सकता है। परन्तु जब तक वह शुभ अवसर प्राप्त न हो तब तक वर्तमानमे यथोपलब्ध साधनोंपरसे तैयार की गई ऐसी सूचियोकी उपयोगिताका मूल्य कुछ कम नहीं हो जाता, बल्कि वास्तवमे देखा जाय तो ये ही वे सूचियाँ होंगी जो अधिकाशमे अपने समय की जरूरतको पूरा करती हुई भविष्यमें अधिक विश्वसनीय सूचियोंके तैयार करनेमे सहायक और प्रेरक बनेंगी। २. ग्रन्थका कुछ विशेष परिचय इस वाक्य-सूची में जगह-जगहपर बहुतसे वाक्य पाठकोको एक ही रूप लिये हुए समान नजर आएँगे और उसपरसे उनके हृदयोमें ऐसी आशङ्काका उत्पन्न होना स्वाभाविक है कि जब ये वाक्य एक ही ग्रंथके विभिन्न स्थलों अथवा विभिन्न ग्रंथों में समानरूपसे विद्यमान हैं तो इन्हें बार वार लिखनेकी क्या जरूरत थी? एक ही बार लियकर उसके आगे उन ग्रंथों के नामादिकका संकेत कर देना चाहिये था जिनमे वे समान रूपसे पाये जाते हैं; परन्तु बात ऐसी नहीं है, एक जगह स्थित वे सब वाक्य परस्पर में पूर्णतः समान नहीं हैंउनमें वे ही वाक्य प्रायः समान हैं जिनके आगे शब्द तथा अर्थकी दृष्टिसे समानताद्योतक चिन्ह लगाया गया है, शेष सब वाक्यों मेसे कोई एक चरणमें कोई दो चरणों में और कोई तीन चरणोंमें भिन्न है तथा कुछ वाक्य ऐसे भी हैं जिनमे मात्र एक दो शब्दोंके परिवर्तनसे ही सारे वाक्यका अर्थ बदल गया है और इसलिये वे शब्दशः बहुत कुछ समान होनेपर भी समानताकी
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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