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________________ प्रस्तावना ऐसा नहीं होता-उसमें क्रमप्राप्त एक ही स्थानपर दृष्टि डालनेसे उस वाक्यक अस्तित्वका शीघ्र पता चल जाता है। चुनॉचे इस विषयमे डा० ए० एन० उपाध्येजीसे परामर्श किया गया तो उनकी भो यही राय हुई कि सत्र ग्रंथों के वाक्योका एक ही जनरल अनुक्रम रक्खा जाय, इससे वर्तमान तथा भविष्यकालीन सभी विद्वानोकी शक्ति एवं समयकी बहुत बड़ी बचत होगी और अनुसंधान-कार्यको प्रगति मिलेगी। अन्तको यही निश्चय हो गया कि सब वाक्योका (अकारादि क्रमसे) एक ही जनरल अनुक्रम रक्खा जाय । इस निश्चयके अनुसार प्रस्तुत कार्य के लिये अपने पासकी पद्यानुक्रमसूचियोंका अब केवल इतना ही उपयोग रह गया कि उनपरसे कार्यों पर अक्षरक्रमानुसार वाक्य लिख लिये जायें। साथ ही प्रत्येक वाक्यके साथ ग्रंथका नाम नोडनेकी बात बढ़ गई। और इस तरह वाक्यसूचीका नये सिरेसे निर्माण कार्य प्रारम्भ हुआ तथा प्रकाशनकार्य एक लम्बे समयके लिये टल गया । सूचीके इस नव-निर्माणकार्यमे वीरसेवामन्दिरके अन्क विद्वानों ने भाग लिया हैजो जो विद्वान नये आते रहे उनकी अक्सर योजना कार्डोंपर वाक्योंके लिखनेमे होती रही। काॉपर अनुक्रम देने अथवा अनुक्रमको जाँचनेका काम प्रायः मुझे ही स्वयं करना होता था, फिर अनुक्रमवार साफ कापी की जाती थी। इस बीचमे कुछ नये प्राप्त पुरातनप्रथो के वाक्य भी सूचीमें यथास्थान शामिल होते रहे है । कार्डीकरण और कार्डो परसे अनुक्रमवार कापीका अधिकाश कार्य पं० ताराचन्दजी दर्शनशास्त्री, पं० शंकरलालजी न्यायतीर्थ तथा पं० परमानन्दजी शास्त्रीने किया है। और इस काममे कितना ही समय निकल गया है। __साफ कापीके पूरा होजानेपर जब ग्रंथको प्रेसमें देनेके लिये उसकी जाँचका समय आया तो यह मालूम हुआ कि ग्रंथमे कितने ही वाक्य सूची करनेसे छूट गये हैं और बहुतसे वाक्य अशुद्धरूप में संगृहीत हुए हैं, जिनमेंसे कितने ही मुद्रित प्रतियोमें अशुद्ध छपे हैं और बहुतसं हस्तलिखित प्रतियोमें अशुद्ध पाये जाते हैं। अतः ग्रन्थोको आदिसे अन्त तक वाक्यसूचीके साथ मिलाकर छूटे हुए वाक्योंको पूर्ति की गई और जो वाक्य अशुद्ध जान पड़े उन्हें ग्रंथके पूर्वापर सम्बन्ध, प्राचीन ग्रन्थोपरसे विषयके अनुसन्धान, विषयकी संगति तथा कोष-व्याकरणादिकी सहायताके आधारपर शुद्ध करनेका भरसक प्रयत्न किया गया, जिससे यह ग्रंथ अधिकसे अधिक प्रामाणिक रूपमें जनताके सामने आए और अपने लक्ष्य तथा उद्देश्यको ठीक तौरपर पूरा करनेमे समर्थ हो सके । इतनेपर भी जहाँ कहीं कुछ सन्देह रहा है वहाँ ब्रेकटमें प्रभाङ्क (?) दे दिया गया है । जाँचके इस कार्यने भी, जिसमें पद्योंके क्रम-परिवर्तनको भी अवसर मिला, काफी समय ले लिया और इसमे भारी परिश्रम उठाना पड़ा है। इस कार्यमें न्यायाचार्य पं० दरबारीलालजी कोठिया और प० परमानन्दजी शास्त्रीका मेरे साथ खास सहयोग रहा है। साथ ही, मूलपरसे संशोधनमें पं0 दीपचन्दजी पांड्या केकडी (अजमेर) ने भी कुछ भाग लिया है। ___ यहाँ प्रसंगानुसार मैं दस पॉच मुद्रित और हस्तलिखित ग्रंथोंकी अशुद्धियोके कुछ ऐसे नमूने दे देना चाहता था जिन्हें इस वाक्यसूचीमे शुद्ध करके रक्खा गया है, जिससे पाठकोको सूचीके जाँचकार्यकी महत्ता, संशोधनकी सूक्ष्मता (बारीकी) और ग्रंथको यथाशक्ति अधिकसे अधिक प्रामाणिकरूप में प्रस्तुत करनेके लिये किये गए परिश्रमकी गुरुताका कुछ आभास मिल जाता; परन्तु इससे एक तो प्रस्तावनाका कलेवर अनावश्यकरूपमे बढ़ जाता; दूसरे, जिन प्रकाशकों के ग्रंथोंकी त्रुटियोको दिखलाया जाता उन्हें वह कुछ बुरा लगता-उनकी कृतियोंकी आलोचना करना अपनी प्रस्तावनाका विषय नहीं है; तीसरे, जो अध्ययनशील अनुभवी विद्वान् हैं वे मुद्रित-अमुद्रित ग्रंथोंकी कितनी ही त्रुटियोंको पहलेसे जान रहे हैं और जिन्हें नहीं जान रहे हैं उन्हें वे इस ग्रंथपरसे तुलना करके सहजमे ही जान लेंगे, यही सब सोचकर यहाँपर उक्त इच्छाका संवरण किया जाता है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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