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________________ १४४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची बाद होना और भी पुष्ट होता है। ऐसी हालतमे न्यायावतारके कर्ता सिद्धसेनको असगके बादका और धर्मकीर्तिके पूर्वका बतलाना निरापद् नहीं है-उसमे अनेक विघ्न-बाधाएँ उपस्थित होती हैं। फलतः न्यायावतार धर्मकीर्ति और पात्रस्वामीके बादकी रचना होनेसे उन सिद्धसेनाचार्यकी कृति नहीं हो सकता जो सन्मतिसूत्रके कर्ता हैं। जिन अन्य विद्वानोंने उसे अधिक प्राचीनरूपमे उल्लेखित किया है वह मात्र द्वात्रिंशिकाओ, सन्मति और न्यायावतारको एक ही सिद्धसेनकी कृतियाँ मानकर चलनेका फल है। इस तरह यहाँ तकके इस सब विवेचनपरसे स्पष्ट है कि सिद्धसेनके नामपर जो भी ग्रन्थ चढ़े हुए हैं उनमेसे सन्मतिसूत्रको छोड़कर दूसरा कोई भी अन्य सुनिश्चितरूपमे सन्मतिकारकी कृति नहीं कहा जा सकता-अकेला सन्मतिसूत्र ही असपत्नभावसे अभीतक उनकी कृतिरूपमें स्थित है। कलको अविरोधिनी द्वात्रिंशिकाओमेसे यदि किसी द्वात्रिंशिकाका उनकी कृतिरूपमे सुनिश्चय हो गया तो वह भी सन्मतिके साथ शामिल हो सकेगी। (ख) सिद्धसेनका समयादिक अब देखना यह है कि प्रस्तुत ग्रन्थ 'सन्मति'के कर्ता सिद्धसेनाचार्य कब हुए हैं और किस समय अथवा समयके लगभग उन्होने इस ग्रन्थकी रचना की है। ग्रन्थमे निर्माणकालका कोई उल्लेख और किसी प्रशस्तिका आयोजन न होनेके कारण दूसरे साधनोपरसे ही इस विषयको जाना जा सकता है और वे दूसरे साधन हैं ग्रन्थका अन्तःपरीक्षण-उसके सन्दर्भ-साहित्यकी जांच-द्वारा वाह्य प्रभाव एव उल्लेखादिका विश्लेपण-, उसके वाक्यो तथा उसमे चचित खास विपयोका अन्यत्र उल्लेख, आलोचन-प्रत्यालोचन, स्वीकार-अस्वीकार अथवा खण्डनमण्डनादिक और साथ ही सिद्धसेनके व्यक्तित्व-विपयक महत्वके प्राचीन उद्दार । इन्ही सब साधनो तथा दूसरे विद्वानोंके इस दिशामे किये गये प्रयत्नोको लेकर मैंने इस विषयमे जो कुछ अनुसंधान एवं निर्णय किया है उसे ही यहॉपर प्रकट किया जाता है: (१) सन्मतिके कर्ता सिद्धसेन केवलीके ज्ञान दर्शनोपयोग-विषयमें अभेदवादके पुरस्कर्ता हैं यह बात पहले (पिछले प्रकरणमे) वतलाई जा चुकी है। उनके इस अभेदवादका खण्डन इधर दिगम्बर सम्प्रदायमे सर्वप्रथम अकलंकदेवके राजवार्त्तिकभाष्यमें और उधर श्वेताम्बर सम्प्रदायमे सर्वप्रथम जिनभद्रक्षमाश्रमणके विशेपावश्यकभाष्य तथा विशेषणवती नामके ग्रन्थोमें मिलता है। साथ ही तृतीय काण्डकी पत्थि पुढवीविसिट्टो' और 'दोहि वि णएहिं णीय' नामकी दो गाथाएँ (५२,४६) विशेषावश्यकभाष्यमें क्रमशः गा० न० २१०४ २१६५ पर उद्धृत पाई जाती हैं। इसके सिवाय, विशेषावश्यकभाष्यकी स्वोपज्ञटीकामें 'णामाइतिय दवतियस्स' इत्यादि गाथा ७५की व्याख्या करते हुए ग्रन्थकारने स्वय "द्रव्यास्तिकनयावलम्बिनी संग्रह-व्यवहारौ ऋजुसूत्रादयस्तु पर्यायनयमतानुसारिणः आचार्यसिद्धसेनाऽभिप्रायात्" इस वाक्यके द्वारा सिद्धसेनाचार्यका नामोल्लेखपूर्वक उनके सन्मतिसूत्र-गत मतका उल्लेख किया है, ऐसा मुनि पुण्यविजयजीके मगसिर सुदि १०मी सं० २००५के एक पत्रसे मालूम हुआ है । दाना १ राजव मि० अ०६ सू० १० वा० १४-१६ । २ विशेषा० भा० गा० ३०८६ से (कोट्याचार्यकी वृत्तिमें गा० ३७२६से) तथा विशेषणवती गा० १८४ से २८०, सन्मति-प्रस्तावना पृ० ७५ । ३ उद्धरण-विषयक विशेष ऊहापोहके लिये देखो, सन्मति-प्रस्तावना पृ० ६८, ६६ । ४ इस टीकाके अस्तित्वका पता हालमें मुनि पुण्यविजयजीको चला है । देखो, श्री आत्मानन्दप्रकाश पुस्तक ४५ अक ८ पृ० १४२ पर उनका तद्विषयक लेख ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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