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________________ } प्रस्तावना १४५ ग्रन्थकार विक्रमकी ७वीं शताब्दी के प्रायः उत्तरार्ध के विद्वान् हैं। अकलकदेवका विक्रम स० ७०० मे बौद्धोके साथ महान बाद हुआ है जिसका उल्लेख पिछले एक फुटनोटमे अकलंकचरितके आधारपर किया जा चुका है, और जिनभद्रक्षमाश्रमणने अपना विशेपावश्यकभाष् सं० ५३१ अर्थात् वि० सं० ६६६ मे बनाकर समाप्त किया है । ग्रन्थका यह रचनाकाल उन्होंने स्वय ही ग्रन्थके अन्त मे दिया है, जिसका पता श्री जिनविजयजीको जैसलमेर भण्डारकी एक अतिप्राचीन प्रतिको देखते हुए चला है। ऐसी हालत में सन्मतिकार सिद्धसेनका समय विक्रम सं० ६६६से पूर्वका सुनिश्चित है परन्तु वह पूर्वका समय कौन-सा है? – कहाँ तक उसकी कमसे कम सीमा है ? यही आगे विचारणीय है । (२) सन्मतिसूत्रमे उपयोग-द्वयके क्रमवादका जोरोंके साथ खण्डन किया गया है, यह बात भी पहले बतलाई जा चुकी तथा मूल ग्रन्थके कुछ वाक्योको उद्धृत करके दर्शाई जाचुकी है। उस क्रमवादका पुरस्कती कौन है और उसका समय क्या है ? यह बात यहाँ खास तौर से जान लेनेकी है । हरिभद्रसूरिने नन्दिवृत्तिमे तथा अभयदेवसूरिने सन्मतिकी टीकामें यद्यपि जिनभद्रक्षमाश्रमणको क्रमवादके पुरस्कर्तारूप मे उल्लेखित किया है परन्तु वह ठीक नहीं है, क्योकि वे तो सन्मतिकारके उत्तरवर्ती हैं. जबकि होना चाहिये कोई पूर्ववर्ती । यह दूसरी बात है कि उन्होंने क्रमवादका जोरोके साथ समर्थन और व्यवस्थित रूपसे स्थापन किया है, संभवतः इसीसे उनको उस वादका पुरस्कर्ता समझ लिया गया जान पडता है । अन्यथा, क्षमाश्रमणजी स्वयं अपने निम्न वाक्यो द्वारा यह सूचित कर रहे हैं कि उनसे पहले युगपद्वाद, क्रमवाद_तथा अभेदवादके पुरस्कर्ता हो चुके हैं: "केई भरणति जुगवं जाणइ पासह य केवली यिमा । tu एगतरिय इच्छति सुश्रवसेणं ॥ १८४ ॥ अणेण चैव वीसु दंसणमिच्छति जिरणवरिंदस्स । ‍ जचि य केवलरणा त चिय से दरिसर विंति ॥ १८५ ॥ - विशेषणवती पं० सुखलालजी दिने भो कथन - विरोधको महसूस करते हुए प्रस्तावना में यह स्वीकार किया है कि जिनभद्र और सिद्धसेनसे पहले क्रमवादके पुरस्कर्तारूपमे कोई विद्वान् होने ही चाहियें जिनके पक्षका सन्मति में खण्डन किया गया है, परन्तु उनका कोई नाम उपस्थित नहीं किया । जहाँ तक मुझे मालूम है वे विद्वान् नियुक्तिकार भद्रबाहु होने चाहियें, जिन्होंने आवश्यक नियुक्तिके निम्न वाक्य-द्वारा क्रमवादकी प्रतिष्ठा की है गामि दसमि इत्तो एगयरयमि उवजुत्ता । सच्चस केवलिस्सा (स्स वि) जुगव दो णत्थि उवोगा ।। ९७८ ।। ये निर्युक्तिकार भद्रबाहु श्रुतकेवली न होकर द्वितीय भद्रबाहु हैं जो श्रष्टाद्ननिमित्त तथा मन्त्र-विद्याके पारगामी होने के कारण 'नैमित्तिक" कहे जाते हैं, जिनकी कृतियो में पावयणी१ धम्मको२ वाई३ ऐमित्ति४ तवस्सी५ य । विना६ सिद्धो७ य कई व पभावगा भणिया ॥ १ ॥ अन रक्ख ९ नदिसेणो २ सिरिगुत्तविणेय३ भद्दबाहू४ य । खवग५ऽज्जखवुड६ समिया ७ दिवायरोद वा इहाऽऽहरणा || २ || - 'छेद सूत्रकार ने नियुक्तिकार' लेखमे उद्धृत ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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