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________________ प्रस्तावना १२३ ण य तइयो अत्थि णो ण य सम्मत्तं ण तेसु पडिपुगणं । जेण दुवे एगंता विभज्जमाणा अणेगंतो ॥ १४ ॥ इन गाथाओंके अनन्तर उत्तर नयोंकी चर्चा करते हुए और उन्हें भी मूलनयों के समान दुर्नय तथा सुनय प्रतिपादन करते हुए और यह बतलाते हुए कि किसी भी नयका एकमात्र पक्ष लेनेपर संसार, सुख, दुःख, बन्ध और मोक्षकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, सभी नयोके मिथ्या तथा सम्यक रूपको स्पष्ट करते हुए लिखा है तम्हा सव्ये वि णया मिच्छादिट्ठी सपक्खपडिबद्धा । अण्णोएणणिस्सिा उण हवंति सम्मत्तसब्भावा ॥ २१ ॥ 'अतः सभी नय-चाहे वे मूल, उत्तर या उत्तरोत्तर कोई भी नय क्यों न हों-जो एकमात्र अपने ही पक्षके साथ प्रतिबद्ध हैं वे मिथ्यादृष्टि हैं-वस्तुको यथार्थरूपसे देखनेप्रतिपादन करनेमे असमर्थ हैं। परन्तु जो नय परस्परमे अपेक्षाको लिये हुए प्रवर्तते हैं वे सब ! सम्याग्दृष्टि हैं-वस्तुको यथार्थरूपसे देखने-प्रतिपादन करने में समर्थ हैं।' तीसरे काण्डमें, नयवादको चर्चाको एक दूसरे ही ढगसे उठाते हुए, नयवादके परिशुद्ध और अपरिशुद्ध ऐसे दो भेद सूचित किये हैं, जिनमे परिशुद्ध नयवादको आगममात्र अर्थका-केवल श्र तप्रमाणके विषयका—साधक बतलाया है और यह ठीक ही है; क्योंकि परिशुद्धनयवाद सापेक्षनयवाद होनेसे अपने पक्षका-अंशोंका-प्रतिपादन करता हुआ परपक्षका-दूसरे अंशोंका-निराकरण नहीं करता और इसलिये दूसरे नयवादके साथ विरोध न रखने के कारण अन्तको श्र तप्रमाणके समय विपयका ही साधक बनता है। और अपरिशुद्ध नयवादको 'दुनिक्षिप्त' विशेषणके द्वारा उल्लेखित करते हुए स्वपक्ष तथा परपक्ष दोनोंका विघातक लिखा है और यह भी टीक ही है, क्योंकि वह निरपेक्षनयवाद होनेसे एकमात्र अपने ही पक्षका प्रतिपादन करता हुआ अपनेसे भिन्न पक्षका सर्वथा निराकरण करता है-विरोधवृत्ति होनेसे उसके द्वारा श्रुतप्रमाणका कोई भी विषय नहीं सघता और इस तरह वह अपना भी निराकरण कर बैठता है। दूसरे शब्दोंमे यो कहना चाहिये कि वस्तुका पूर्णरूप अनेक सापेक्ष अंशो-धर्मोसे निर्मित है जों परस्पर अविनाभावसम्बन्धको लिये हुए है, एकके अभावमें दूसरेका अस्तित्व नहीं बनता, और इसलिये जो नयवाद परपक्षका सर्वथा निषेध करता है वह अपना भी निषेधक होता है-परके अभावमें अपने स्वरूपको किसी तरह भी सिद्ध करने में समर्थ नहीं हो सकता। नयवादके इन भेदों और उनके स्वरूपनिर्देशके अनन्तर बतलाया है कि जितने । वचनमार्ग हैं उतने ही नयवाद हैं और जितने (अपरिशुद्ध अथवा परस्परनिरपेक्ष एवं विरोधी) नयवाद हैं उतने ही परसमय-जैनेतरदर्शन हैं । उन दर्शनोमे कपिलका सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य है। शुद्धोदनके पुत्र बुद्धका दर्शन परिशुद्ध पर्यायनय का विकल्प है। उलूक अर्थात् कणादने अपना शास्त्र (वैशेपिक दर्शन) यद्यपि दोनों नयोंके - द्वारा प्ररूपित किया है फिर भी वह मिथ्यात्व है-अप्रमाण है, क्योंकि ये दोनो नयदृष्टियाँ उक्त दर्शनमे अपने अपने विपयकी प्रधानताके लिये परस्परमे एक दूसरेकी कोई अपेक्षा। नही रखतीं । इस विषयमे सम्बन्ध रखनेवाली गाथाएं निम्न प्रकार हैं परिसुद्धो णयवाओ आगममेत्तत्थ साधको होइ । सो चेव दुरिणगिएणो दोरिण वि पक्खे विधम्मेइ ॥ ४६॥ जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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