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________________ १२२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची 'अतः कोई द्रव्यार्थिक नय ऐसा नहीं जो नियमसे शुद्धजातीय हो-अपने प्रतिपक्षी पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हआ उसके विपय-स्पर्शसे मुक्त हो। इसी तरह पर्यायार्थिक नय भी कोई ऐसा नहीं जो शुद्धजातोय हो-अपने विपक्षी द्रव्यार्थिकनयकी अपेक्षा न रखता हुआ उसके विपय-स्पर्शसे रहित हो। विवक्षाको लेकर ही दोनोंका भेद है-विवक्षा मुख्य-गौणके भावको लिये हुए होती है द्रव्याथिकमें द्रव्य-सामान्य मुख्य और पर्याय-विशेप गौण होता है और पर्यायार्थिकमे विशेष मुख्य तथा सामान्यगौण होता है।' इसके बाद बतलाया है कि-'पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमे द्रव्यार्थिकनयका वक्तव्य (सामान्य) नियमसे अवस्तु है। इसी तरह द्रव्याथिकनयकी दृष्टिमे पयायाधिकनयका वक्तव्य (विशेप) अवस्तु है। पर्यायार्थिकनयकी दृष्टिमे सर्व पदार्थ नियममे उत्पन्न होते है और नाशको प्राप्त होते हैं। द्रव्यार्थिकनयकी दृष्टिमे न कोई पदार्थ उत्पन्न होता है और न नाशको प्राप्त होता है। द्रव्य पर्याय (उत्पाद-व्यय) के विना और पर्याय द्रव्य (धाव्य) के विना नहीं होते; क्योकि उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनो द्रव्य-सत्का अद्वितीय लक्षण है। ये तीनों एक दूसरेके साथ मिलकर ही रहते हैं, अलग-अलगरूपमे ये द्रव्य (सत) के कोई लक्षण नहीं होते और इसलिये दोनो मूलनय अलग-अलगरूपमे-एक दूसरेकी अपेक्षा न रखते हुए-मिथ्यादृष्टि है । तीसरा कोई मृलनय नहीं है और ऐसा भी नहीं कि इन दोनों नयोमें यथार्थपना न समाता हो-वस्तुके यथार्थ स्वरूपको पूर्णतः प्रतिपादन करनेमे ये असमर्थ हों-; क्योंकि दोनों एकान्त (मिथ्या दृष्टियॉ) अपेक्षाविशेषको लेकर ग्रहण किये जाते ही अनेकान्त (सम्यग्दृष्टि) बन जाते हैं । अर्थात् दोनों नयोंमेंसे जब कोई भी नय एक दूसरेकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने ही विपयको सतरूप प्रतिपादन करनेका आग्रह करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशमे पूर्णताका माननेवाला होनेसे मिथ्या है और जब वह अपने प्रतिपक्षी नयकी अपेक्षा रखता हुआ प्रवर्तता है-उसके विपयका निरसन न करता हुआ तटस्थरूपसे अपने विषय (वक्तव्य) का प्रतिपादन करता है तब वह अपने द्वारा ग्राह्य वस्तुके एक अंशको अशरूपमे ही (पूर्णरूपमे नहीं) माननेके कारण सम्यक व्यपदेशको प्राप्त होता है । इस सब श्राशयकी पाँच गाथाएँ निम्न प्रकार हैं दव्वट्ठिय-वत्तव्यं अवत्थु णियमेण पज्जवणयस्स | तह पज्जवत्थ अवत्थुमेव दबट्टियणयस्स ॥१०॥ उप्पज्जंति वियंति य भावा पज्जवणयस्प । दव्वट्ठियस्स सव्वं सया अणुप्पएणमविणटुं ॥ ११ ॥ दव्वं पज्जव-विउयं दव्य-विउत्ता य पज्जवा णस्थि । उप्पाय-ट्ठिइ-भंगा हंदि दवियलक्खणं एयं ॥ १२ ॥ एए पुण संगहओ पाडिकमलक्खणं दुवेण्हं पि । तम्हा मिच्छादिट्ठी पत्तेयं दो वि मूल-णया ॥ १३ ॥ /१ "पज्जयविजुदं दव्वं दबविजुत्ता य पजवा 'ण त्थि । दोरह अणण्णभूदं भाव समणा परूविति ॥ १-१२ ॥" । -पञ्चास्तिकाये, श्रीकुन्दकुन्द । सद्व्य लक्षणम् ॥ २६ ॥ उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् ॥ ३०॥ -तत्त्वार्थसूत्र अ० ५। V२ तीसरे काण्डमें गुणार्थिक (गुणास्तिक) नयकी कल्पनाको उठाकर स्वयं उसका निरसन किया गया है (गा० ६ से १५)।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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