SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 142
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२४ पुरातन-जैनवाक्य-सूची जावइया णयवाया तावइया चेव परसमया ॥४७॥ जं काविलं दरिसणं एयं दबहियस्स वत्तव्यं । सुद्धोत्रण-तणअस्स उ परिसुद्धो पज्जवविअप्पो ॥४८॥ दोहि विणएहि णीयं सत्थमुलूएण तह वि मिच्छत्तं । जं सविसअप्पहाणतणेण अएणोएणणिरवेक्खा ॥४६॥ __ इनके अनन्तर निम्न दो गाथाओं मे यह प्रतिपादन किया है कि 'सांख्योंके सवाद पक्षमें बौद्ध और वैशेपिक जन जो दोप देते हैं तथा बौद्धों और वैशेपिकोंके असवाद पक्षमे सांख्य जन जो दोप देते है वे सब सत्य है-सर्वथा एकान्तवादमे वैस दोष आते ही हैं। ये दोनों सवाद और असवाद दृष्टियॉ यदि एक दूसरेकी अपेक्षा रखते हुए संयोजित होजायसमन्वयपूर्वक अनेकान्तदृष्टिमे परिणत हो जायँ-तो सर्वोत्तम सम्यग्दर्शन बनता है ; क्योंकि ये सत्-असत्ररूप दोनो दृष्टियॉ अलग अलग संसारके दुःखसे छुटकारा दिलानेमें समर्थ नहीं है-दोनोके सापेक्ष संयोगसे ही एक-दूसरेकी कमी दूर होकर संसारके दुःखोंसे शान्ति मिल सकती है : जे संतवाय-दोसे सकोलूया भणंति संखाणं । संखा य असवाए तेसि सव्ये वि ते सच्चा ॥ ५० ॥ ते उ भयणोवणीया सम्मइंसणमणुत्तरं होति । जं भव-दुक्ख-विमोक्खं दो वि ण पूरेंति पाडिकं ॥५१॥ इस सब कथनपरसे मिथ्यादर्शनो और सम्यग्दर्शनका तत्त्व सहज ही समझमें आजाता है और यह मालूम हो जाता है कि कैसे सभी मिथ्यादर्शन मिलकर सम्यग्दर्शनके रूप में परिणत हो जाते हैं। मिथ्यादर्शन अथवा जैनेतरदर्शन जब तक अपने अपने वक्तव्यक प्रतिपादनमे एकान्तताको अपनाकर परविरोधका लक्ष्य रखते हैं तब तक वे सम्यग्दर्शनमे परिणत नहीं होते, और जब विरोधका लक्ष्य छोड़कर पारस्परिक अपेक्षाको लिये हुए समन्वयकी दृष्टिको अपनाते हैं तभी सम्यग्दर्शनमे परिणत हो जाते हैं और जैनदर्शन कहलानेके योग्य होते हैं । जनदर्शन अपने स्यावादन्याय-द्वारा समन्वयकी दृष्टिको लिये हुए है-समन्वय ही उसका नियामक तत्त्व है, न कि विरोध-और इसलिये सभी मिथ्यादर्शन अपने अपने विरोधको भुलाकर उसमें समा जाते है। इसोसे ग्रन्थकी अन्तिम गाथामे जिनवचनरूप जिनशासन अथवा जैनदर्शनकी मंगलकामना करते हुए उसे 'मिथ्यादर्शनोंका समूहमय' बतलाया है । वह गाथा इस प्रकार है: भई मिच्छादसण-समूहमइयस्स अमयसारस्स । जिणवयणस्स भगवत्रो संविग्गसुहाहिगम्मस्स ।। ७०॥ . इसमें जैनदर्शन (शासन) के तीन खास विशेषणोंका उल्लेख किया गया है-पहला विशेषण मिथ्यादर्शनसमूहमय, दूसरा अमतसार और तीसरा सविग्नसुखाधिगम्य है । मिथ्यादर्शनोंका समूह होते हुए भी वह मिथ्यात्वरूप नहीं है, यही उसकी सर्वोपरि विशेषता है और यह विशेषता उसके सापेक्ष नयवादमे संनिहित है-सापेक्ष नय मिथ्या नहीं होत, निरपेक्ष नय ही मिथ्या होते हैं जब सारी विरोधी दृष्टियाँ एकत्र स्थान पाती हैं तब फिर उनमे विरोध नहीं रहता और वे सहज ही कार्यसाधक बन जाती हैं। इसीपरसे दूसरा विशे१ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यैकान्तताऽस्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्याः सापेक्षा वस्तु तेऽर्थकृत् ।। १०८॥-देवागमे, स्वामिसमन्तभद्रः ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy