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________________ ११८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची अप्रकाशित जान पड़ता है। इसमें प्रायः आत्मा, मन और धार्मिकों तथा योगियों को सम्बोधन करके ही उपदेश दिया गया है और दान, परोपकार, आत्मध्यान, संसार-विरक्ति एवं अहद्भक्तिकी प्रेरणा की गई है। . इसके रचयिता सुप्रभाचार्य हैं, जिन्होंने प्रायः प्रत्येक पद्यमें 'सुप्पह भणइ' जैसे वाक्यके द्वारा अपने नामका निर्देश किया है और एक स्थानपर ( दोहा ५६ में) 'सुप्पहु भणइ मुणीसरहु' वाक्यके द्वारा अपनेको 'मुनीश्वर' भी सूचित किया है; परन्तु अपना तथा अपने गुरु आदिका अन्य कोई विशेष परिचय नहीं दिया। और इसलिये इनके विषयमे अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। हाँ, ग्रंथपरसे इतना स्पष्ट है कि ये निम्रन्थ जैन मुनि थे-निर्ग्रन्थ-तपश्चरण और निरंजन भावको प्राप्त करनेकी इन्होने प्रेरणा की है। ___ इस ग्रंथकी एक प्रति नयामन्दिर धर्मपुरा देहलीके शास्त्रभण्डारमे मौजूद है, जो श्रावणशुक्ला ४ सोमवार विक्रम संवत् १८३५ की लिखी हुई है, जैसाकि उसके अन्तकी निम्न पुष्पिकासे प्रकट है: ____इति श्रीसुप्रभाचार्यविरचितदोहा समाप्ता । संवत् १८३५ वर्षे शाके १७०० मीति श्रावणशुक्ल ४ वार शोमवार लीषते लोकमनपठनार्थ। लिष्यौ आणंदरामजीकादेहरामे संपूर्ण कियो । शुभं भवतु ।" इस ग्रन्थकी आदिमें कोई मंगलाचरण अथवा प्रतिज्ञा-वाक्य नहीं है-ग्रन्थ हक्कहि घरे वधावणउ' से प्रारम्भ होता है- और अन्त में समाप्तिसूचक पद्य भी नहीं है। यहाँ ग्रन्थके कुछ पद्य नमूनेके तौरपर नीचे दिये जाते हैं, जिससे पाठकोंको उसके भाषासाहित्य और उक्तियों आदिका कुछ आभास प्राप्त हो सकेः इक्कहिं घरे वधावणउ, अण्हहिं घरि धाहहिं रोविज्जइ । परमत्थई सुप्पहु भणइ, किम वइरायभानु ण उ किज्जइ ॥१॥ अह धरु करि दाणेण सहुं, अह तउ करि णिग्गंथु । विह चुक्कऊ सुप्पडु भणइ, रे जिय इत्थ ण उत्थ ॥५॥ जिम झाइज्जइ वल्लहु, तिम जइ जिय अरस्तु । सुप्पहु भणइ ते माणुसहं, सग्गु परिगणि हंतु ॥६॥ धणु दीणहं गुणसज्जणहं, मणु धम्महं जो देइ । तह पुरिसहं सुप्पहु भणइ, विहि दासत्तु करेइ ॥ ३८॥ जसु मणु जीवइ विषयवसु, सो पर मुवो भणेहु । जसु पुणु सुप्पहु मण मरय, सो यह जियउ भणेहु ॥ ६०॥ जसु लग्गउ सुप्पहु भणइ, पियघर-घरणि-पिसाउ । सो किं कहिउ समायरइ, मित्त णिरंजण-भाउ ॥६१॥ जिम चिंतिज्जइ घर घरणि, तिम जइ परउवयारु । तो णिच्छउ सुप्पहु भणइ, खणि तुइ संसारु ॥६४ ॥ सो घरवइ सुप्पहु भणइ, जसु कर दाणि वहति । जो पुणु संचे घणु जि घणु, सो णरु संडु भणंति ॥ ७६ ॥ ग्रन्थकी उक्त देहली-प्रतिक साथ कर्तृ नाम-विहीन एक छोटीसी सस्कृत टीका भी लगी हुई है जो बहुत कुछ साधारण तथा अपर्याप्त है और कहीं कहीं अर्थके विपर्यासको भी लिये हुए है।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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