SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 135
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रस्तावना ११७ * 1 और देहली नयामन्दिरकी प्रतिके अन्तमें, जो पौष शुक्ला ६ शुक्रवार संवत् १७६४ की लिखी हुई है, साफ लिखा है - " इति श्रीमुनिरामसिंह विरचितपाहुडदोहासमाप्तम् ।" यह ग्रंथ भी, 'सावयधम्मदोहा' की तरह, प्रो० हीरालालजी एम० ए० के द्वारा सम्पादित होकर अम्बालाल चवरे दि० जैन ग्रंथमाला में प्रकाशित हो चुका है। ग्रंथमे ग्रंथकर्ताने अपना तथा अपने गुरु आदिका कोई खास परिचय नहीं दिया और न ग्रंथका रचनाकाल ही दिया है, इससे इनके विपयमे अभी विशेष कुछ नहीं कहा जा सकता । (प्रो० हीरालालजीने 'भूमिका' में बतलाया है कि 'इस ग्रंथके ४३ और २१५ नम्बर के दोहे वे ही हैं जो 'सावयधम्म दोहा' में क्रमशः न० १२९ व ३० पर पाये जाते हैं । उनकी स्थिति 'सावयघम्मदोहा' में जैसी स्वाभाविक, उपयुक्त और प्रसंगोपयोगी है वैसी इस पाहुडदोहामे नहीं है, इसलिये वे वहीं परसे पाहुडदोहामे उद्घृत किये गये हैं । और चूँकि सावयवम्मदोहा दर्शनसारके कर्ता देवसेन (वि० सं० ६६०) की कृति है इसलिये यह पाहुडदोहा वि० सं० ६६० ( ई० सन् ९३३) के बादकी कृति ठहरती है ।' साथ ही, यह भी बतलाया है कि 'हेमचन्द्राचार्य ने अपने व्याकरणमे अपभ्रश सम्बन्धी सूत्रों के उदाहरणरूप पाँच दोहे ऐसे दिये हैं जो इस ग्रन्थपरसे परिवर्तित करके रखे गये होते हैं । चूँकि हेमचन्द्रका व्याकरण गुजरातके चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज के राज्य - कालमें—ई० सन् १०६३ और ११४३ के मध्यवर्ती समयमे - बना है । इससे प्रस्तुत सन १९०० से पूर्वका बना हुआ सिद्ध होता है ।' परन्तु हेमचन्द्रके व्याकरणमें उक्त दोहें जिस स्थितिमे पाये जाते हैं उसपर से निश्चितरूपमे यह नहीं कहा जा सकता कि वे इसी प्रन्थपरसे लिये गये हैं परिवर्तन करके रखनेको बात उनके विपयके अनुमानको और भी कमजोर बना देती है - उदाहरण के तौरपर उद्धृत किये जानेवाले पद्योंमे स्वेच्छा से परिवर्तनकी बात कुछ जीको भी नहीं लगती। इसी तरह 'सावयधम्मदोहा' का देवसेनकृत होना भी अभी निर्णीत नहीं हैं। ऐसी हालत मे इस ग्रंथका समय ई० सन् ६३३ के बादका और सन १९०० से पूर्वका जो निश्चित किया गया है वह अभी सन्दिग्ध जान पड़ता है और विशेष विचारकी अपेक्षा रखता है । अत ग्रंथ के समय सम्बन्धादिके विषय में अधिक खोज होने की जरूरत है । ग्रंथकार महोदयने इस ग्रंथमे जो उपदेश दिया है उसके कुछ अंशोंका सार प्रो० हीरालालजी के शब्दों में इस प्रकार है : ("उनका (ग्रंथकार का ) उपदेश है कि सुख के लिये बाहर के पदार्थों पर अवलम्बित होनेकी आवश्यकता नहीं है, इससे तो केवल दुःख और संताप ही बढ़ेगा | सच्चा सुख इन्द्रियोंपर विजय और आत्मध्यानमे ही मिलता है । यह सुख इंद्रियसुखाभासों के समान क्षणभंगुर नहीं है, किन्तु चिरस्थायी और कल्याणकारी है, आत्माकी शुद्धि के लिये न तीर्थजलकी आवश्यकता है, न नानाप्रकारका वेष धारण करनेकी । आवश्यकता है केवल, राग और द्व ेषकी प्रवृत्तियोंको रोककर, आत्मानुभवकी । मूंड मुडानेसे, केश लौंच करनेसे या नग्न होने से ही कोई सच्चा योगी और मुनि नहीं कहा जा सकता । योगी तो तभी होगा जब समस्त अंतरग परिग्रह छूट जावे और मन आत्मध्यानमे विलीन होजावे । देवदर्शन के लिये पापारण के बड़े बड़े मन्दिर बनवाने तथा तीर्थों तीर्थों भटकने की अपेक्षा अपने ही ! शरीरके भीतर निवास करनेवाले देवका दर्शन करना अधिक सुखप्रद और कल्याणकारी | आत्मज्ञान से हीन क्रियाकाड कणरहित तुष और पयाल कूटने के समान निष्फल हैं ऐसे व्यक्तिको न इन्द्रियसुख ही मिलता और न मोक्षका मार्ग ही । " what --- ६३. सुप्रभदाहा - यह प्रायः दोहों में नीति, धर्म और अध्यात्म - विपयकी शिक्षाको लिये हुए अपश भाषाका एक प्रथ है, जिसकी पद्य - सख्या ७७ है और जो अभी तक
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy