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________________ प्रस्तावना ११६ ६४. सन्मतिसूत्र और सिद्धसेन 'सन्मतिसूत्र' जैनवाड्मयमें एक महत्वका गौरवपूर्ण ग्रंथरत्न है, जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंमें समानरूपसे माना जाता है। श्वेताम्बरोंमें यह सम्मतितक', 'सम्मतितर्कप्रकरण' तथा 'सम्मतिप्रकरण' जैसे नामोंसे अधिक प्रसिद्ध है, जिनमें 'सन्मति' की जगह 'सम्मति' पद अशुद्ध है और वह प्राकृत 'सम्मई' पदका गलत संस्कृत रूपान्तर है.। पं० सुखलालजी और पं० बेचरदासजीने, ग्रन्थका गुजराती अनुवाद प्रस्तुत करते हुए, प्रस्तावनामें इस गलतीपर यथेष्ट प्रकाश डाला है और यह बतलाया है कि 'सन्मति' भगवान महावीरका नामान्तर है, जो दिगम्बरपरम्परामे प्राचीनकालसे प्रसिद्ध तथा 'धनखयनाममाला' मे भी उल्लेखित है, ग्रन्थ नामके साथ उसकी योजना होनेसे वह महावीरके सिद्धान्तोंके साथ जहाँ ग्रन्थके सम्बन्धको दर्शाता है वहाँ श्लषरूपसे अष्ट मति अर्थका सूचन करता हुआ ग्रन्थकर्ताके योग्य स्थानको भी व्यक्त करता है और इसलिये औचित्यकी दृष्टिसे 'सम्मति' के स्थानपर 'सन्मति' नाम ही ठीक वैठता है। तदनुसार ही उन्होंने ग्रन्थका नाम 'सन्मति-प्रकरण' प्रकट किया है दिगम्बर-परम्पराके धवलादिक प्राचीन ग्रन्थोंमे यह सन्मतिसूत्र (सम्मइसुत्त) नामसे ही उल्लेखित मिलता है। और यह नाम सन्मति-प्रकरण नामसे भी अधिक औचित्य रखता है, क्योकि इसकी प्रायः प्रत्येक गाथा एक सूत्र है अथवा अनेक सूत्रवाक्योंको साथमे लिये हुए है पं० सुखलालजी आदिने भी प्रस्तावना (पृ० १३) मे इस बातको स्वीकार किया है कि 'सम्पूर्ण सन्मति ग्रंथ सूत्र कहा जाता है और इसकी प्रत्येक गाथाको भी सूत्र कहा गया है। भावनगरकी श्वेताम्बर सभासे वि० सं० १९६५ में प्रकाशित मूलप्रतिमें भी "श्रीसंमतिसूत्र समाप्त मिति भद्रम्" वाक्यके द्वारा इसे सूत्र नामके साथ ही प्रकट किया है -तर्क अथवा प्रकरण नामके साथ नहीं।) इसकी गणना जैनशासनके दर्शन-प्रभावक ग्रंथोंमें है। श्वेताम्बरोंके जीतकल्पचूर्णि' ग्रंथकी श्रीचन्द्रसूरि-विरचित विषमपदव्याख्या' नामकी टीकामें श्रीअकलङ्कदेवके 'सिद्धिविनिश्चय' ग्रंथके साथ इस 'सन्मति' ग्रंथका भी दर्शनप्रभावक ग्रंथोंमें नामोल्लेख किया गया है और लिखा है कि ऐसे दर्शनप्रभावक शास्त्रोंका अध्ययन करते हुए साधुको अकल्पित प्रतिसेवनाका दोष भी लगे तो उसका कुछ भी प्रायश्चित्त नहीं है, वह साधु शुद्ध है। यथा "दंसण त्ति-दसण-पभावगाणि सत्थाणि सिद्धिविणिच्छय-सम्मत्यादि गिण्हतोऽसंथरमाणो जं अकप्पियं पडिसेवइ जयणाए तत्थ सो सुद्धोऽप्रायश्चित्त इत्यर्थः२/।" इससे प्रथमोल्लेखित सिद्धिविनिश्चयकी तरह यह ग्रंथ भी कितने असाधारण महत्वका है इसे विज्ञपाठक स्वयं समझ सकते हैं। ऐसे ग्रंथ जैनदर्शनकी प्रतिष्ठाको स्व-पर हृदयोंमे अकित करने वाले होते हैं। तदनुसार यह ग्रंथ भी अपनी कीर्तिको अक्षुण्ण बनाये हुए है। इस ग्रंथके तीन विभाग हैं जिन्हें 'काण्ड' संज्ञा दी गई है । प्रथम काण्डको कुछ हस्तलिखित तथा मुद्रित प्रतियोंमे 'नयकाण्ड' बतलाया है-लिखा है "नयकडं सम्मत्त"और यह ठीक ही है, क्योंकि साग काण्ड नयके ही विषयको लिये हुए है और उसमें द्रव्यार्थिक तथा पर्यायार्थिक दो नयोंको मूलाधार बनाकर और यह बनलाकर कि 'तीर्थकर १ "अणेण सम्मइसुत्तेण सह कथमिदं वक्खाणं ण विरुज्झदे हदि ण, तत्य पजायस्स लक्खण खइणो भावव्भुवगमादो।" (धवला १) "ण च सम्मइसुत्तेण सह विरोहो उजुसुद-णय-विसय-भावणिक्खेवमस्सिदूण तप्यउत्तीदो।" (जयधवला१) V२ श्वेताम्बरों के निशीथ ग्रन्थकी चूर्णिमें भी ऐसा ही उल्लेख है:'दसणगाही-दसणणाणप्पभावगाणि सत्याणि सिद्धिविणिच्छय-संमतिमादि गेण्हतो असंथरमाणे जं अकप्पिय पडिसेवति जयणाते तत्य सो सुद्धो अप्रायश्चित्ती भवतीत्यर्थः।" (उद्देशक १)
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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