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________________ १०८ पुरातन-जैनवाक्य-सूची भी निषेध होजाता है। इस तरह प्रेमीजीकी दृष्टिमें यह छेदपिण्ड उपलब्ध इन्द्रनन्दिसंहिताके कर्ताको ही कृति है, और उसका प्रधान कारण इतना ही है कि यह ग्रंथ उनके कथनानुसार उक्त संहितामें भी पाया जाता है और उसके चतुर्थ अध्यायके रूपमें स्थित है इसीसे प्रेमीजीने छेदपिण्ड-कर्ताके समय-सम्बन्धमें विक्रमकी १४वीं शताब्दी तककी कल्पना करते हुए इतना तो निःसन्देहरूपमें कह ही डाला है कि "छेदपिएडके कर्ता विक्रमकी १३वीं शताब्दीक पहले के तो कदापि नहीं हैं।" परन्तु संहितामे किसी स्वतंत्र ग्रंथ या प्रकरणका उपलब्ध होना इस बातकी कोई दलील नहीं है कि वह उस संहिताकारकी ही कृति है; क्योंकि अनेक संग्रह-ग्रंथों में दूसरों के प्रथ अथवा प्रकरणके प्रकरण उद्धृत पाये जाते हैं। परन्तु इससे वे उन संग्रहकारोंकी कृति नहीं हो जाते । उदाहरणके तौरपर गोम्मटसारके तृतीय अधिकाररूपमें कनकनन्दी सि० च० का 'सत्वस्थान' नामका प्रकरणग्रंथ मंगलाचरण और अन्तकी प्रशस्त्यादिविपयक गाथाओं सहित अपनाया गया है, इससे वह गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्रकी कृति नहीं हो गया-उनके द्वारा मान्य भले ही कहा जा सकता है। प्रभाचन्द्र के क्रियाकलापमें अनेक भक्तिपाठोका और स्वामी समन्तभद्रके स्वयम्भूस्तोत्र तकका संग्रह है, परन्तु इतने मात्रसे वे सब ग्रंथ प्रभाचन्द्रकी कृति नहीं हो गए। मेरी रायमे यह छेदपिण्ड, जो अपनी रचनाशैली आदिपरसे एक व्यवस्थित स्वतंत्र ग्रंथ मालूम होता है, यदि उक्त इन्द्रनन्दिसहितामे भी पाया जाता है तो उसमें उसी तरह अपनाया गया है जिस तरह कि १७वीं शताब्दीकी बनी हुई भद्रवाहुसंहितामें भद्रबाहुनिमित्तशास्त्र' नामके एक प्राचीन ग्रंथको अपनाया गया है । और जिस तरह उसके उक्त प्रकार अपनाए जानेसे वह १७वीं शताब्दीका ग्रंथ नहीं हो जाता उसी तरह छेदपिण्डके इन्द्रनन्दि-संहितामे समाविष्ट होजाने मात्रसे वह विक्रमकी १३वीं शताब्दी अथवा उससे बादकी कृति नहीं हो जाता। वास्तवमे छेदपिण्ड संहिताशास्त्रकी अपेक्षा न रखता हुआ अपने विषयका एक बिल्कुल स्वतंत्र ग्रंथ है, यह बात उसके साहित्यको आद्योपान्त गौरसे पढ़नेपर भले प्रकार स्पष्ट हो जाती है। उसके अन्तमे गाथासंख्या तथा श्लोकसंख्याका दिया जाना और उसे ग्रंथपरिमाण (गंथस्स परिमाणं) प्रकट करना भी इसी बानको पुष्ट करता है। यदि वह मूलत: और वस्तुत संहिताका ही एक अंग होता तो ग्रंथपरिमाण उसी तक सीमित न रहकर सारी संहिताका ग्रंथपरिमाण होता और वह संहिताके ही अन्तमें रहता न कि उसके किसी अंगविशेषके अन्तमें। इसके सिवाय, छेदपिण्डकी साहित्यिक प्रौढता, गम्भीरता और विषय-व्यवस्था भी उसे संहिताकारके खुदके स्वतंत्र साहित्यसे, जो बहुत कुछ साधारण है और जिसका एक नमूना दाराभागप्रकरणके अन्त में पाई जानेवाली उक्त अप्रासंगिक गाथाओंसे जाना जाता है, पृथक सूचित करती है । उसमे जीतशास्त्र और कल्पव्यवहार जैसे प्राचीन ग्रंथों का ही उल्लेख होनेसे, जो आज दिगम्बर जैन समाज में उपलब्ध भी नहीं हैं, उसकी प्राचीनताका ही बोध होता है। और इसलिये, इन सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए, मेरी इस ग्रंथसम्बन्धमे यही राय होती है कि यह ग्रंथ उक्त इन्द्रनन्दिसंहिताके कर्ताकी कृति नहीं है और न साहित्यादिकी दृष्टिसे नीतिसारके कर्ताकी ही कृति इसे कहा जा सकता है, बल्कि यह अधिकांशमे उन इन्द्रनन्दीकी कृति जान पड़ता है और होना चाहिये जो गोम्मटसारके को नेमिचन्द्र और सत्वस्थानके कर्ता कनकनन्दीके गुरु - देहलीके पंचायतीमन्दिरमें इन्द्रनन्दिसंहिता' की जो प्रति है उसमें तीन अध्याय ही पाये जाते हैं, और उनपरसे यह संहिता बहुत कुछ साधारण तथा भट्टारकीय लीलाको लिये हुए आधुनिक कृति । जान पड़ती है। २ देखो, अन्यपरीक्षा द्वितीयभाग पृ० ३६ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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