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________________ प्रस्तावना १०६ थे तथा ज्वालामालिनी-फल्पके रचयिता थे अथवा जो उनसे भी.पूर्व वासवनन्दीके गुरु हुए हैं और जिनका उल्लेख ज्वालामालिनी-कल्पकी प्रशस्तिमे पाया जाता है । और इसलिये यह अन्ध विक्रमकी 8वीं १०वीं शताब्दीके मध्यका बना हुआ होना चाहिये । मल्लिपेण-प्रशस्तिमे जिन इन्द्रनन्दीका उल्लेख है वे भी प्राय. इस प्रायश्चित्त ग्रंथके कर्ता ही जान पड़ते हैं। इसीसे उस प्रशस्ति-पद्यमें कहा गया है कि 'भो भव्यो ! यदि तुम्हें दुरितग्रह-निग्रहसे-पापरूपी ग्रहके द्वारा पकड़े जानेसे-कुछ भय होता है तो अनेक नरेन्द्रवन्दित इन्द्रनन्दी मुनिको भजो ।' चूंकि ये इन्द्रनन्दी अपनी प्रायश्चित्त-विधिके द्वारा पापरूप ग्रहका निग्रहकरनेमे समर्थ थे, और इसलिये उनके सम्यक उपासक-उनकी प्रायश्चित्तविधिका ठीक उपयोग करने वाले-पापकी पकड़मे नहीं आते, इसीसे वैसा कहा' गया जान पड़ता है। ५३. छेदशास्त्र—यह ग्रन्थ भी प्रायश्चित्त-विषयका है। इसका दूसरा नाम 'छेदनवति' है, जिसका उल्लेख अन्तकी एक गाथामे है और उसका कारण ग्रन्थका १० गाथाओंमें निर्दिष्ट होना (उदिगाहाहि णिट्टि') है । परन्तु मुद्रित ग्रन्थ-प्रतिमे ६४ गाथाएँ उपलब्ध है, और इसलिए ३ या ४ गाथाएं इसमे बढ़ी हुई अथवा प्रक्षिप्त समझनी चाहिये । यह ग्रन्थ प्रधानतः साधुओंको लक्ष्य करके लिखा गया है, इसी से प्रथम मगलगाथामें 'वुच्छामि छेदसत्थं साहूण सोहणट्ठाणं' ऐसा प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है। परन्तु अन्तमे कुछ थोड़ा-सा कथन' श्रावकोके लिये भी दे दिया गया है । ग्रन्थकी अधिकांश गाभाओंके साथ छोटी-सी वृत्ति भी लगी हुई है , जिसे टिप्पणी कहना चाहिये। इस प्रन्थका कर्ता कौन है, यह अज्ञात है-न मूलमें उसका उल्लेख है, न वृत्तिमे और न आद्यन्तमे ही उसकी कोई सूचना की गई है । और इसलिये उसके तथा अन्धके रचनाकाल-विपयमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता । हाँ, इस ग्रन्थको जब छेदपिण्डके साथ पढ़ते हैं तो ऐसा मालूम होता है कि एक ग्रंथकारके सामने दूसरा ग्रन्थ रहा है, इसीसे कितनी ही गाथाओंमे एक दूसरेका अनुकरण अनेक अंशोंमे पाया जाता है और एक दो गाथाएँ ऐसी भी देखनेमे आती हैं जो प्रायः समान हैं। समान गाथाओमें एक गाथा'तो 'अणुकपाकहणेण' नामकी वही है जिसे ऊपर छेदपिण्ड-परिचयमे प्रक्षिप्त सिद्ध किया गया है और दूसरी 'प्रायविलम्हि पादूण' नामकी है जो इस ग्रन्थमे नं०५ पर और छेदपिण्डमें नं० ११ पर पाई जातो है और जिसके विपयमे छेदपिण्डके फुटनोटमें। लिखा है कि वह 'ख' प्रतिमें उपलब्ध नहीं है । हो सकता है कि वह भी छेदपिण्डमें प्रक्षिप्त हो । अव तीन नमूने ऐसे दिये जाते हैं जिनमें कुछ अनुकरण, अतिरिक्त कथन और स्पष्टीकरणका भाव पाया जाता है: १ पायच्छित्तं सोही मलहरणं पावणासणं छेदो । पज्जाया..... ॥२॥ २ एक्कम्मि वि उवसग्गे, रणव णवकारा हवंति वारसहि ।। सयमहोत्तरमेदे हवंति उववास जस्स फलं ॥६॥ '३ जावदिया परिणामा तावदिया होंति तत्थ अवराहा । पायच्छित्तं सक्कइ दादं कादं च को समए ॥१०॥ -छेदशास्त्र १ पायच्छित्तं छेदो मलहरणं पाबणासणं सोही । पुण्ण पबित्तं पावणमिदि पायच्छित्तनामाई ॥३॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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