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________________ प्रस्तावना दिसिविदिसिपच्चक्खाणं अणत्थदंडाण होइ परिहारो।। भोप्रोवभोयसंखा एए हु गुणव्वया तिरिण ॥ ५६ ॥ देवे थुवइ तियाले पव्वे पव्वे य पोसहोवासं । अतिहीण संविभाओ मरणंते कुणइ सल्लिहणं ॥ ६० ॥ इनमेसे पहलीमे दिग्विदिक प्रत्याख्यान, अनर्थदण्डपरिहार और भोगोपभोगसंख्याको तीन गुणव्रत बतलाया है, और दूसरीमे त्रिकालदेवस्तुति, पर्व-पर्वमे प्रोषधोपवास, अतिथिसविभाग और मरणान्तमे सल्लेखना, इन चारको शिक्षाबत सूचित किया है । परन्तु वसुनन्दिश्रावकाचारका कथन इससे भिन्न है-उसमे दिग्विरति, देशविरति और अनर्थदण्डविरति, इन तीन व्रतोके आशयको लिए हुए तो तीन गुणवत बतलाये हैं, और भोगविरति, परिभोनिवृत्ति, अतिथिसंविभाग और सल्लेखना, इन चारको शिक्षाव्रत निर्दिष्ट किया है। ऐसे स्पष्ट भिन्न विचारों एवं कथनोकी. हालतमें दोनों ग्रथों के कतों एक ही वसुनन्दी नहीं कहे जा सकते । और इसलिए तत्त्वविचारको किसी दूसरे ही वसुनन्दीका सग्रहपथ समझना चाहिये। क्योंकि प्रतिमाप्रकरणकी उक्त दोनों गाथाएँ भी उसमे संगृहीन है और वे देवसेनके भावसंग्रहसे ली गई हैं जहाँ वे न०३५४, ३५५ पर पाई जाती हैं। और यह भी हो सकता है कि उसे वसुनन्दीसे भिन्न किसी दूसरे ही व्यक्तिने रचा हो, जो वसुनन्दीके नामसे अपने विचारोंको चलाना चाहता हो । ऐसे विचारों का एक नमूना यह है कि इसमे णमोकारमंत्रके एक लाख जापसे निःसन्देह तीर्थकर गोत्रका बन्ध होना' बतलाया है। कुछ भी हो, यह प्रथ वसुनन्दिश्रावकाचारके अनेक प्रकरणोकी काट-छॉट करके, कुछ इधर उधरसे अपने प्रयोजनानुकूल लेकर और कुछ अपनी तरफसे मिलाकर बनाया गया जान पड़ता है और उक्त श्रावकाचारके कर्ताकी कृति नहीं है। शैली भी इसकी महत्वकी मालूम नहीं होती। ४६. आयज्ञानतिलक-यह प्रश्नविद्यासे सम्बन्ध रखनेवाला एक महत्वका प्रश्नशास्त्र है, जिसमे ध्वजादि ८ प्राचीन आयपदार्थों को लेकर स्थिरचक्र और चलचक्रादिकी रचना एव विधिव्यवस्था-द्वारा अनेकविध प्रश्नों के शुभाऽशुभ फलको जानने और बतलानेकी कलाका निर्देश है। इसमें २५ प्रकरणे हैं जिनके नाम इस प्रकार हैं - १ आयस्वरूप, २ पातविभाग, ३ अायावस्था, ४ ग्रहयोग, ५ पृच्छाकार्यज्ञान, ६ शुभाऽशुभ, ७ लाभाऽलाभ, ८ रोगनिर्देश, कन्यापरीक्षण, १० भूलक्षण, ११ गर्भपारज्ञान, १२ विवाह, १३ गमनाऽऽगमन, १४ परिचितज्ञान, १५ जय-पराजय, १६ वर्षालक्षण, १७ अर्घकाण्ड, १८ नष्टपरिज्ञान, १६ तपोनिर्वाहपरिज्ञान, २० जीवितमान, २१ नामाक्षरोदेश, २२ प्रश्नाक्षर-संख्या, २३ सकीर्ण, २४ काल, २५ चक्रपूजा । . थकी गाथासंख्या ४१५ है और उसे दिगम्बराचार्य प० दामनन्दीके शिष्य भट्टवोसरिने गुरु दामनन्दीके पाससे आयोंके बहुत गुह्य (रहस्य) को जानकर आयविषयक संपूर्ण शास्त्रों के साररूपमे रचा है । इसपर प्रथकारकी स्वयंकी बनाई हुई एक सस्कृत टीका भी है, जिसमे ग्रंथकारने ग्रंथ अथवा टीकाके रचनेका कोई समय नहीं दिया । इस सटीक अथकी एक जीर्ण-शीर्ण प्रति घोघा वन्दरके शास्त्रभंडारकी मुझे कुछ समयके लिये मुनि १ जो गुणह लक्खमेग पूयविही जिणणमोक्कार । तित्ययरनामगोत्त सो बधइ एत्यि सदेहो ॥ १५ ॥ ४२ ज दामनन्दिगुरुणोऽमणयं श्रायाण जाणि[य] गुज्झ । त श्रायणाणतिलए वोसरिणा भन्नए पयह ॥२॥ ३ श(स )वीयशास्त्रसारेण यत्कृत जनमहन । तदायशानतिलकं स्वय विवियते मया ॥ २ ॥
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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