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________________ १०० पुरातन-जैनवाक्य-सूची इस ग्रन्थमें वसुनन्दीने ग्रन्थरचनाका कोई समय नहीं दिया, परन्तु उनकी इस कृतिका उल्लेख १३वीं शताब्दीके विद्वान् पं० आशाधरने अपनी. सागारधर्मामतकी टीकामें किया है, इससे वे १३वीं शताब्दीसे पहले हुए हैं। और चूंकि उन्होंने मूलाचारकी अपनी 'आचारवृत्ति' में ११वीं शताब्दीके विद्वान् आचार्य अमिततके उपासकाचारसे 'त्यागो देहममत्वस्य तनूत्मृतिरूदाहृता' इत्यादि पाँच श्लोक 'उपासकाचारे उक्तमास्ते' रूपसे उद्धृत किये हैं, इसलिये वे अमितगतिके बाद हुए है। और इसलिये उनका तथा उनकी इस कृतिका समय विक्रम की १२वों शताब्दीका पूर्वार्ध जान पड़ता है और यह भी हो सकता है कि वह ११वीं शताब्दीका चतुर्थ चरण हो, क्योंकि, पं० नाथूरामजीके उल्लेखानुसार२ अमितगतिने अपनी भगवतीआराधना के अन्तमे आराधनाक़ी स्तति करते हुए उसे 'श्रीवसुनन्दियोगिमहिता' लिखा है । यदि ये वसुनन्दी योगी कोई दूसरे न होकर प्रस्तुत श्रावकाचारके कर्ता ही है तो वे अमितगतिके समकालीन भी हो सकते हैं और १२वीं शताब्दीके प्रथम चरणमें भी उनका अस्तित्व बन सकता है । यहॉ पर मै इतना और भी वतला देना चाहता हूँ कि एक 'तत्त्वविचार' नामका ग्रन्थ भी वसुनन्दिसूरिकी कृतिरूपमें उपलब्ध है, जिसके वाक्य इस वाक्य-सची में शामिल नहीं हो सके हैं । उसकी एक प्रति बम्बईके ऐलकपन्नालालसरस्वतीभवनमें मौजूद है जिसकी पत्रसंख्या २७ है। सी० पी० और वरारके केटेलॉगमे भी उसकी एक प्रतिका उल्लेख है। ग्रन्थकी गाथासंख्या ६५ है और उसका प्रारंभ 'णमिय जिणपासपय' और 'सुयसायरो अपारो' इन दो गाथाओसे होता है तथा अन्तकी दो गाथाएँ समाप्तिवाक्यसहित इस प्रकार है " एसो तच्चवियारो सारो सज्जन-जणाण सिवसुहदो । वसुनंदिसूरि-रइयो भव्याणं पोहण खु ॥ १४ ॥ जो पढइ सुणइ अक्खइ अण्णं पाढेइ देइ उवएसं । सो हणइ णिय य कम्मं कमेण सिद्धालयं जाई ॥ १५ ॥ इति वसुनन्दि-सिद्धांति-विचित-तच्वविचारः समाप्तः।" इस ग्रन्थमे १ णवकारफल, २ धर्म, ३ एकोनविंशद्भावना, ४ सम्यक्त्व, ५ पूजाफल, ६ विनयफल, ७ वैश्यावृत्य, ८ एकादशप्रतिमा, ६ जीवदया, १० श्रावकविधि, ११.अणुव्रत, और १२ दान नामके बारह प्रकरण है। इनमेंसे प्रतिमा, विनय, और वैयावृत्य प्रकरणोंका जो मिलान किया गया तो मालूम हुआ कि इन प्रकरणोमे बहुतसी गाथाएँ वसुनन्दिश्नावकाचारसे ली गई है, बहुतसी गाथाएं उस श्रावकाचारकी छोड़ दी गई हैं और कुछ गाथाएं इधर उधरसे भी दी गई हैं। व्रतप्रतिमामें 'गुणव्रत' और 'शिक्षाव्रत' के कथनकी जो गाथाएं दी हैं वे इस प्रकार है: यस्तु-पचुंबरसाहियाइ सत्त वि वसणाई जो विवज्जेइ । सम्मत्तविसुद्धमई सो दंसणसावनो भणियो।" इति वमुनन्दिसैद्धान्तिमतेन दर्शनप्रतिमाया प्रतिपन्नस्तस्येदं । तन्मतेनैव व्रतप्रतिमा विभ्रतो ब्रह्माणुव्रतं स्यात् तद्यथा-पव्वेसु इत्यिसेवा अणगकीडा सया विवज्जेइ । थूलपड बभयारी जिणेहि मणिदो पवयणम्मि ॥" (४-५२ पृ० ११६) २ नसाहित्य और इतिहास पृ० ४६३ । V३ यह ग्रन्थ बम्बई में अगस्त सन् १६२८ में देखा था और तभी इसके कुछ नोट लिये थे, जिनके आधार पर ये परिचय-पंक्तियाँ लिखी जा रही हैं। इस विषयपर 'तत्त्वविचार और वसुनन्दी' नामका एक नोट भी अनेकान्तके प्रथम वर्षकी किरण ५ में पृ० २७४ पर प्रकाशित किया गया था।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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