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________________ १०२ पुरातन-जैनवाक्य-सूची पुण्यविजयजीके सौजन्यसे प्राप्त हुई थी, जिसके लिये मैं उनका आभारी हूँ । उसीपरसे एक प्रति आरा जेनसिद्धान्तभवनको करा दी गई थी। दूसरी कोई प्राचीन प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई, और उपलब्ध प्रति कितने ही स्थानोंपर अशुद्ध पाई जाती है। इस सटीक ग्रंथके सन्धिवाक्योंका एक नमूना इस प्रकार है : ___ "इति दिगम्बराचार्य-पंडित श्रीदामनन्दि-शिष्य-भट्टवोसारि-विरचिते सायश्रीटीकायज्ञानतिलके अायस्वरूप-प्रकरणं प्रथमं ॥१॥" अन्तिम संधिवाक्यके पूर्व अथवा टीकाके अन्तमे ग्रंथकारका एक प्रशस्तिपद्य इसमें निम्न प्रकारसे उपलब्ध होता है : "महादेवान्मांत्री प्रमितविषयं रागविमुखो विदित्वा श्रीकोत्कविसमयशा सुप्रणयिनीं । कलां दद्धाच्छाब्दी विरचयदिदं शास्त्रमनुजः स्फुरद्वर्णायश्रीशुभगमधुना वोसरिसुधीः ॥ १२ ॥" यह पद्य कुछ अशुद्ध है और इससे यद्यपि इसका पूरा आशय व्यक्त नहीं होता, फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि इसमे ग्रंथकारने ग्रंथसमाप्ति की सूचनाके साथ, अपना कुछ परिचय दिया है-अपनेको मंत्री (मंत्रवादी) और सुधीः (पंडित) व्यक्त करनेके साथ साथ रागविमुख (विरक्त) अनुज और किसी उत्कट कविके समान यशस्वी भी बतलाया है। रागविमुख होनेकी बात तो समझमें आजाती है, क्योंकि ग्रंथकार एक दिगम्बर आचार्य के शिष्य थे, इससे उनका रागसे विमुख-विरक्तचित्त होना स्वाभाविक है । परन्तु आप अनुज (लघुभ्राता) किसके ? और किस कविके समान यशस्वी थे ? ये दोनों बातें विचारणीय रह जाती हैं। कविके उल्लेखवाले पदमे एक अक्षरकी कमी है और वह 'को' अक्षरके पूर्व या उत्तरमे दीर्घस्वरवाला अक्षर होना चाहिये, जिसके विना छंदोभंग हो रहा है; क्योंकि यह पद्य शिखरिणी छंदमे है, जिसके प्रत्येक चरणमें १७ अक्षर, चरणान्तमे लघु-गुरु और गण क्रमशः य, म, न, स, भ-संज्ञक होते हैं । वह अक्षर 'को' हो सकता है और उसके छूट जानेकी अधिक सम्भावना है । यदि वही अभिमत हो तो पूरा पद 'श्रीकोकोत्कविसमयशाः' होकर उससे 'कोक' कविका आशय हो सकता है जो कि कोकशास्त्रका कर्ता एक प्रसिद्ध कवि हुया है । तीसरे चरणमे भी 'दद्धाच्छाब्दी' पद अशुद्ध जान पड़ता है-उससे कोई ठीक अर्थ घटित नहीं होता । उसके स्थान पर यदि 'लब्ध्वा शाब्दी' पाठ होवे तो फिर यह अर्थ घटित हो सकता है कि 'महादेव नामके विद्वानसे प्रमित (अल्प) विषयको जानकर और सुप्रणयिनीके रूपमे शान्दिकी कलाको प्राप्त करके उनके छोटे भाई चोसरिसुधीने यह शास्त्र रचा है, जो कि स्फुरायमान वर्णों वाली आयश्रीके सौभाग्यको प्राप्त है अथवा उस आयश्रीसे सुशोभित है, और इससे इस स्वोपक्ष टीकाका नाम 'प्रायश्री' जान पडता है। इस तरह इस पद्यमे महादेव नामके जिस व्यक्तिका विद्यागुरुके रूपमे उल्लेख है वह ग्रन्थकारका बड़ा भाई भी हो सकता है। - अनुजका एक अर्थ 'पुनर्जन्म' अथवा 'द्वितीय-जन्मकोप्राप्त' का भी है और वह पुनर्जन्म अथवा द्वितीयजन्म संस्कारजन्य होता है जैसे द्विजोंका यज्ञोपवीत-संस्कारजन्य द्वितीयजन्म'। बहुत सभव है कि भट्टवोसरि पहले अजैन रहे हों और बादको जैन १ अनुज-4 Born again inrested with the sacred thread-V. S. Apte Sanskrit, English Dictionary
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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