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________________ 1 प्रस्तावना पदसे बड़ा है ।) (दूसरे, गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्य की यह खास पद्धति रही है कि वे अपने प्रन्थों मे अपने गुरु अथवा गुरुवोंका नामोल्लेख जरूर करते आए हैं, चुनांचे लब्धिसार और त्रिलोकसारके अन्तमे भी उन्होंने अपने नामके साथ गुरु नामका उल्लेख किया है; परन्तु इस ग्रन्थमे वैसा कुछ नहीं हैं" । अतः इसे भी उन्हीं की कृति कहनेमे संकोच होता है | ) (तीसरे, टीकाकार ब्रह्मदेवने, इस ग्रन्थके रचे जानेका सम्बन्ध व्यक्त करते हुए अपनी टीकाके प्रस्तावना - वाक्यमे लिखा है कि- 'यह द्रव्यसंग्रह नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव के द्वारा, भाण्डागारादि अनेक नियोगों के अधिकारी 'सोम' नामके राजश्र ेष्ठिके निमित्त, ‘आश्रम' नाम नगरके मुनिसुव्रत - चैत्यालय में रचा गया है, और वह नगर उस समय धाराघी महाराज भोजदेव कलिकालचक्रवर्ती सम्बन्धी श्रीपाल मण्डलेश्वर के अधिकारमे था । साथ ही, यह भी सूचित किया है कि 'पहले २६ गाथा - प्रमाण लघुद्रव्यसंग्रहकी रचना की, गई थी, बादको विशेषतत्त्वपरिज्ञानार्थ उसे बढ़ाकर यह ब्रहद्रव्य संग्रह बनाया गया है ।' यह सब कथन ऐसे ढंगसे और ऐसी तफसीलके साथ लिखा गया है कि इसे पढ़ते समय यह खयाल आये बिना नहीं रहता कि या तो ब्रह्म देव उस समय मौजूद थे जब कि द्रव्यसंग्रह बनकर तय्यार हुआ, अथवा उन्हें दूसरे किसी खास विश्वस्त मार्ग से इन सब बातोका ज्ञान प्राप्त हुआ है, और इस लिये इसे सहसा असत्य या अप्रमाण नहीं कहा जा सकता । और जब तक इस कथनको असत्य सिद्ध न कर दिया जाय तब तक यह नहीं कहा जा सकता कि यह प्रन्थ उन्हीं नेमिचन्द्रके द्वारा रचा गया है जो कि चामुण्डरायके समकालीन थे; क्योकि उनका समय ईसाकी १०वीं शताब्दी है, जब कि भोजकालीन नेमिचन्द्रका समय ईसाकी ११वीं शताब्दी बैठता है । ६३ चौथे, द्रव्यसंग्रहके कर्ताने भावासवके भेदोंमे 'प्रमाद' को भी गिनाया है और अविरतके पाँच तथा कपायके चार भेद ग्रहण किये हैं । परन्तु गोम्मटसारके कर्त्ताने ‘प्रमाद' को भावास्रवके भेदोंमें नहीं माना और अविरत के ( दूसरे ही प्रकारके) बारह तथा कषायके २५ भेद स्वीकार किये हैं; जैसा कि दोनों ग्रंथोंके निम्नवाक्योंसे प्रकट है:मिच्छत्ताऽविरदि - पमादजोग - कोहादोऽथ विणणेया । पण पण पदसतिय चदु कमसो भेदा दु पुवस्स ||३०|| – द्रव्यसंग्रह मिच्छत्तं विरमणं कसाय - जोगा य आसवा होंति । पण बारस पणवीसं पण्यरसा होति तन्भेया ॥ ७८६ | गो० कर्मकाण्ड १ "वीरिददिवच्छेणप्पसुदेणभयणं दिसिस्सेय । दंसणचरित्तलद्धी सुसूयिया गेमिचंदेरा" || ६४८ ॥ - लब्धसार "इदि मिचदमुणिया श्रप्पसुदेणभयण दिवच्छेण । रहयो तिलोयसारो खमतु त बहुसुदाइरिया " ॥ १०१८ ॥ - त्रिलोकठार "दव्य संगहमिणं मुणिगादा दोससचयचुदा सुदपूण्णा । मोघपतु तत्तधरेण गेमिचंद मुणिया भणियं जं ॥ ५८ ॥ - द्रव्यसग्रह २ "अथ मालवदेशे धारानामनगराधिपतिराजाभोजदेवाभिधान-कलिकालचक्रवर्ति सम्बन्धिनः श्रीपाल - मण्डलेश्वरस्य सम्बन्धिन्याऽऽश्रमनामनगरे श्रीमुनिसुव्रततीर्थंकर चैत्यालये शुद्धात्मद्रव्यसंवित्तिसम्पन्नसुखामृतरसņस्त्रादविपरीतन।रकादिदुःखभयभीतस्य परमात्मभावनोत्पन्नसुखसुधारसपिपासितस्य भेदाभेदरत्नत्रय भाषा प्रियस्य भव्यत्ररपुण्डरीकस्य भाण्डागाराद्यनेक-नियोगाधिका रिसोमाभिघानराजश्र ेष्ठिनोनिमित्तं श्रीनेमिचन्द्र सिद्धान्ति देवः पूर्वे षडविंशतिगाथाभिलघुद्रव्य संग्रहं कृत्वा पश्चाद्विशेषत्त्वपरिज्ञानार्थं विरचितस्य वृद्रव्यसग्रहस्याधिकारशुद्धिपूर्वकत्वेन वृत्ति. प्रारभ्यते ।” f
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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