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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची एक ही विषयपर, दोनों प्रथोंके इन विभिन्न कथनोंसे ग्रंथकर्ताओंकी विभिन्नताका बहुत कुछ बोध होता है । और इस लिये उक्त सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए यह कहने में कोई बाधा मालूम नहीं होती कि द्रव्यसंग्रहके कर्ता नेमिचन्द्र गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीसे भिन्न हैं । इसी बातको मैंने आजसे कोई २६ वर्ष पहले द्रव्यसंग्रहकी अपनी उस विस्तृत समालोचनामे व्यक्त किया था, जो आरासे मा० देवेन्द्रकुमार द्वारा प्रकाशित 'द्रव्यसंग्रह के अंग्रेजी संस्करणपर की गई थी और जैन हितैषी भाग १३ के १२वें अंकमे प्रकट हुई थी। उसके विरोधमे किसीका भी कोई लेख अभी तक मेरे देखने में नहीं आया। प्रत्युत इसके, प० नाथूरामजी प्रेमीने, त्रिलोकसारकी अपनी (ग्रंथकर्तृ परिचयात्मक) प्रस्तावनामें, उसे स्वीकार किया है। अस्तु; नेमिचन्द्र नामके अनेक विद्वान् आचार्य जैनसमाजमे होगए हैं, जिनमेसे एक ईसाकी प्रायः ११वीं शताब्दी में भी हुए हैं जो वसुनन्दि-सद्धान्तिकके गुरु थे, जिन्हें वसुनन्दि-श्रावकाचारमे 'जिनागमरूप समुद्रकी वेला-तरंगोंसे धूयमान और संपूर्णजगतमे विख्यात' लिखा है। आश्चर्य तथा असंभव नहीं जो ये ही नेमिचन्द्र द्रव्यसंग्रहके कर्ता हों, परन्तु यह बात अभी निश्चितरूपले नहीं कही जा सकती-उसके लिये और भी कुछ सावन-सामग्रीकी ज़रूरत है। ग्रंथपर ब्रह्मदेवकी उक्त टीका आध्यात्मिक दृष्टि से निश्चय और व्यवहारका पृथककरण करते हुए कुछ विस्तारके साथ लिखी गई है। इस टीकाकी एक हस्तलिखित प्रति जेसलमेरके भण्डारमे संवत् १५८५ अर्थात् ई. सन् १४०८ की लिखी हुई उपलब्ध है और इससे यह टीका ई० सन् १४२८ से पहलेकी बनी हुई है। चूंकि टीकामें घाराधीश भोजका उल्लेख है, जिसका समय ई० सन् १०१८ से १०६० है अत. यह टीका ईसाकी १५वीं शताब्दी , से पहलेकी नहीं है। इसका समय अनुमानतः १२वीं-१३वीं शताब्दी जान पड़ता है। ४४. कर्मप्रकृति- यह वही १६० गाथाओंका एक संग्रह ग्रंथ है जो प्रायः गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्राचार्य (सिद्धान्तचक्रवती) की कृति समझा जाता है; परन्तु वस्तुतः उनके द्वारा संकलित मालूम नहीं होता-उन्हींके नामके अथवा उन्हींके नामसे किसी दूसरे विद्वानके द्वारा संकलित या संगृहीत जान पड़ता है और जिसका विशेष ऊहापोहके साथ पूर्ण परिचय गोम्मटसार-विषयक प्रकरणमे 'प्रकृति समुत्कीर्तन और कर्मप्रकृति' उपशीर्षकके नीचे दिया जा चुका है । वहींपर इस ग्रंथपर उपलब्ध होनेवाली टीकाओ तथा टिप्पणादिका भी उल्लेख किया गया है, जिनपरसे ग्रंथका दूसरा नाम 'कर्मकाण्ड' उपलब्ध होता है और गोम्मटसार-कर्मकाण्डकी दृष्टिले जिसे 'लघुकर्मकाण्ड' कहना चाहिये । यहॉपर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि इस ग्रंथका अधिकांश शरीर, आदि-अन्तभागों-सहित गोम्मटसारकी गाथाओंसे निर्मित हुआ है-गोम्मटसारकी १०२ गाथाएं इसमे ज्यो-की-त्यों उधृत हैं और २८ गाथाएं उसीके गद्य सूत्रोंपरसे निर्मित जान पड़ती हैं। शेष ३० गाथाओं में १६ गाथाएं तो देवसेनादिके भावसंग्रहादि ग्रंथोंसे ली गई मालूम होती हैं और १४ ऐसी हैं जिनके ठीक स्थानका अभी तक पता नहीं चला-वे धवलादि ग्रंथोके पटसंहननोंके लक्षण-जैसे वाक्योंपरसे सग्रहकारद्वारा खुदकी निर्मित भी हो सकती है । इन सब गाथाओंका विशेष परिचय गोम्मटसार-प्रकरणके उक्त उपशीर्षकके नीचे (पृष्ठ ७४ से ८८ तक) दिया है, वहींसे उसे जानना चाहिये ।) : - ४५. पंचसंग्रह-यह गोम्मटसार-जैसे विषयों का एक अच्छा अप्रकाशित संग्रह ग्रंथ है। गोम्मटसारका भी दूसरा नाम "पंचसंग्रह' है; परन्तु उसमे सारे ग्रंथको जिस प्रकार दो काण्डों (जीव, कर्म) में विभक्त किया है और फिर प्रत्येक काण्डके अलग अलग अधिकार दिये हैं उस प्रकारका विभाजन इस ग्रंथमे नहीं है। इसमें समूचे ग्रंथको पाच अधिकारों
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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