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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची (१ दर्शनलब्धि,चारित्रलब्धि और ३ क्षायिकचारित्रनामके तीन अधिकार है। प्रथम अधिकारमें पॉच लब्धियोंके स्वरूपादिका वर्णन है, जिनके नाम हैं-१ क्षयोपशम २ विशुद्धि , ३ देशना, ४ प्रायोग्य और ५ करण । इनमेसे प्रथम चार लधियां सामान्य हैं, जो भव्य और अभव्य दोनों ही प्रकारक जीवोंके होती है। पॉचवी करणलघि सम्यग्दर्शन और सम्यकचरित्रकी योग्यता रखने वाले भव्यजीवोंके ही होती है और उसके तीन भेद हैं-१ अघःकरण, २ अपूर्वकरण ३ अनिवृत्तिकरण | दूसरे अधिकारमें चरित्र-लब्धिका स्वरूप और चरित्रके भेदों-उपभेदों आदिका संक्षेपमें वर्णन है । साथ ही. उपशमश्रेणी चढ़नेका विधान है । तीसरे अधिकारमें चारित्रमोहकी क्षपणाका संक्षिप्त विधान है, जिसका अन्तिम परिणाम मुक्ति है । इस प्रकार यह प्रन्थ संक्षेपमें आत्मविकासकी कुजी अथवा उस की साधन-सूचीको लिये हुए है। रायचन्द्र-जैनशास्त्रमालामे मुद्रित प्रतिक अनुसार इसकी गाथासंख्या ६४६ है । इसपर भी दूसरे नेमिचंद्राचार्यको सस्कृत टीका और पं० टोडरमल्ल जीकी हिन्दी टीका उपलब्ध है । पण्डित टोडरमल्लजीने इसके दो अधिकारोंका व्याख्यान तो संस्कृत टीका के अनुसार किया है और तीमरे 'क्षपणा' अधिकारका व्याख्यान उस संस्कृत गद्यात्मक क्षपणासारके अनुसार किया है जो श्रीमाधवचन्द्र विद्यदेवकी कृति है । और इसीसे उन्होंने अपनी सम्यग्ज्ञानन्द्रिका टीकाको लब्धिसारक्षपणासार-सहित गोम्मटसारकी टीका व्यक्त किया है। ४२. त्रिलोकसार-यह त्रिलोकसार प्रन्थ भी उक्त नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्तीकी कृति है (इसमे ऊर्व मध्य, अघ ऐसे तीनो लोकोके आकार-प्रकारादिका विस्तारके साथ वर्णन है। इसका आधार तिनोयपएणत्ती' (त्रिलोकप्रज्ञप्ति) और 'लोकविभाग' जैसे प्राचीन प्रन्थ जान पड़ते है। इसकी गाथासख्या १०१८ है, जिसमे कुछ गाथाएँ माधवचन्द्र विद्यके द्वारा भी रची गई हैं, जो कि प्रन्धकारके प्रधान शिप्योंमे थे और जिन्होंने इस ग्रन्थपर संस्कृत टीका भी लिखी है । वे गाथाएं नेमिचन्द्राचार्यको सम्मत थी अथवा उनके अभिप्रायानुसार लिखी गई हैं, ऐसा टीकाकी प्रशस्तिमे व्यक्त किया गया है । गोम्मटसार प्रन्थमे भी कुछ गाथाएं आपकी बनाई हुई शामिल है, जिनकी सूचना टीकाओं के प्रस्तावना-वाक्योंसे होती है । गोम्मटसारकी तरह इस ग्रन्थका निर्माण भी प्रधानत. चामुण्डरायको लक्ष्य करके उनके प्रतिवोधनार्थ हुआ है और इस बातको माधवचन्द्रजग्ने अपनी टीकाके प्रारम्भमे व्यक्त किया है। प्रस्तु, यह ग्रन्थ उक्त संस्कृत टीका-सहित माणिकचन्द्र-ग्रन्थमालामे प्रकाशित हो चुका है । इसपर भा १० टोडरमल्ल जीकी विस्तृत हिन्दी टीका है, जिसमे गणितके विपयको विशेष रूपसे खोला गया है। ४३. द्रव्यसंग्रह-यह संक्षेपमे जीव और अजीव द्रव्योके कथनको लिये हुए एक बड़ा ही सुन्दर सरल एवं रोचक प्रन्थ है । इसमें पटद्रव्यों, पंचास्तिकायो. सप्ततत्त्वो और नवपदार्थोंका सूत्ररूपसे वर्णन है । साथ ही, निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्गका भी सूत्रतः निरूपण है। और इस लिये यह एक पद्यात्मक सूत्र ग्रन्थ है, जिसकी पद्य संख्या कुल ५८ है। अन्धके अन्तिम पद्यमे ग्रन्थकारने अपना नाम 'नेमिचन्द्रमुनि' दिया है-अपना तथा अपने गुरु आदिका और कोई परिचय नहीं दिया। इन नेमिचन्द्रमुनिको आम तौर पर गोम्मटसारके कर्ता नेमिचन्द्र मिद्धान्नचक्रवर्ती समझा जाता है; परन्तु वस्तुस्थिति ऐसी मालूम नहीं होती और उसके निम्नकरण हैं: प्रथम तो इन ग्रन्थकार महोदयका सिद्धान्तचक्रवर्ती के रूपमे काई प्राचीन उल्लेख नहीं मिलता । संस्कृत टीकाकार ब्रह्मदेवने भी इन्हें सिंद्धान्तचक्रवर्ती नहीं लिखा, किन्तु 'सिद्धान्तिदेव' प्रकट किया है । सिद्धान्ती होना और बात है और सिद्धान्तचक्रवर्ती होना दूसरी बात है। सिद्धान्तचक्रवर्तीका पद सिद्धान्ती, सैद्धान्तिक अथवा मिद्धान्तिदेवके
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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