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________________ पुरातन-जैनवाक्य-सूची 1 पूर्वापर कथनके साथ इनकी संगति ठीक नहीं बैठती । कर्मप्रकृति ग्रंथ में चूंकि चारों वर्षों का कथन है, इसलिये उसमे खींचतान करके किसी तरह इनका सम्बन्ध विठलाया जा सकता है परन्तु गोम्मटसार के इस प्रथम अधिकार मे तो इनकी स्थिति समुचित प्रतीत नहीं होती, जबकि उसके दूसरे ही अधिकार मे बन्ध-विपयका स्पष्ट उल्लेख है । ये गाथाएँ कर्मप्रकृतिमे देवसेनके भावसंग्रहमंथसे उठाकर रक्खी गई मालूम होती है, जिसमे ये न० ३२५ से ३२६ तक पाई जाती है । (३) २१वीं और २२वीं गाथाओ के मध्य मे 'गाणावरण कम्मं', दंसणआवरणं पुण', 'महुलित्त-खग्गसरिसं', 'मोहेइ मोहणीयं, 'आउं चउपयारं', 'चित्तं पढ व विचित्त', 'गोद कु लालसरिसं', जह भडयारिपुरिसो' इन आठ गाथाओ की स्थिति भी संगत मालूम नहीं होती। इनकी उपस्थितिमे २१वीं और रखीं दोनो गाथाएँ व्यर्थ पड़ती है; क्योंकि २१वीं गाथामें जब दृष्टान्तों द्वारा आठो कर्मों के स्वरूपका और २२वीं गाथामे उन कर्मो की उत्तर प्रकृतिसंख्याका निर्देश है तब इन आठो गाथाओं मे दोनों वातोका एक साथ निर्देश है । इन गाथाओंमे जब प्रत्येक कर्मकी अलग अलग उत्तर प्रकृतियोंकी संख्याका निर्देश किया जाचुका तब फिर रवीं गाथामें यह कहना कि 'कर्मों की क्रमशः ५, ६, २,२८,४, ६३ या १०३,२, ५ उत्तरप्रकृतियाँ होती हैं' क्या अर्थ रखता है ? व्यर्थताके सिवाय उससे और कुछ भी फलित नहीं होता । एक सावधान ग्रंथकार के द्वारा ऐसी व्यर्थ रचनाकी कल्पना नहीं की जा सकती । ये गाथाएँ यदि २२वीं गाथाके बाद रक्खी जातीं तो उसकी भाष्य-गाथाएँ हो सकती थीं, और फिर २१वीं गाथाको देने की जरूरत नहीं थी; क्योंकि उसका विषय भी इनमें आगया है । ये गाथाएँ भी उक्त भावसग्रहकी है और वहीं मे उठाकर कर्मप्रकृति में रक्खी गई मालूम होती हैं । भावसंग्रहमे ये ३३१ से ३३८ नम्बरकी गाथाएँ हैं' । ८४ (४) गो० कर्मकाण्डकी २२वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति मे 'हिमुहणियमियोहरण', अत्थादो अत्थतर', 'अवहीर्याद त्ति श्रोही', 'चितियमचितयं वा', 'संपुरणं तु समग्गं', 'मादसुदओही मरणपज्जवे', 'जं सामरणं गेहणं', 'चक्रवूण जं पयासइ, परमाणुआ दियाड', 'बहुविबहुप्पयारा', 'चक्खु चक्त्रोही', 'अह थी गद्धिणिद्दा' ये १२ गाथाएँ पाई जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डके प्रथम श्रधकार में त्रुटित बतलाया जाता है। इनमे से मतिज्ञानादि पाँच ज्ञानों और चक्षु-दर्शनादि चार दर्शनों के लक्षणोकी जो ९ गाथाएँ हैं वे उक्त अधिकारकी कथनशैली और विषयप्रतिपादन की दृष्टिसे उसका कोई आवश्यक अंग मालूम नहीं होतीं—खासकर उस हालतमें जब कि वे ग्रन्थके पूर्वार्ध जीवकाण्ड में पहलेसे प्राचुकी है और उसमें क्रमश. नं० ३०५, ३१४, ३६६, ४३७, ४५६, ४८१, ४८३ ४८४, ४८५ पर दर्ज हैं। शेष तीन गाथाएँ ('मदिसुद-श्रोही मणपज्ज व ', ' चक्खुष्प्रचक्खओही ' ' श्रह थी गद्धिणिहा') जिनमें ज्ञानावरणकी ५ और दर्शनावरणकी ६ उत्तर प्रकृतियोके नाम है, प्रकरण साध संगत हैं अथवा यों कहिये कि रखी गाथा के बाद उनकी स्थिति ठीक कही जा सकती है, क्योंकि मूलसूत्रोंकी तरह उनसे भी अगली तीन गाथाओ ( नं० २३, २४, २५) की संगत ठीक बैठ जाती है । (५) कर्मकाण्डमे २५वीं गाथाके बाद 'दुविहं खु वेयणीयं ' और ' बंधादेगं मिच्छं ' नामकी जिन दो गाथाओंको कर्मप्रकृति के अनुसार त्रुटित बतलाया जाता है वे भी प्रकरणक साथ संगत हैं अथवा उनकी स्थितिको ५वीं गाथावे बाद ठीक वहा जा सकता है, क्योंकि मृलसूत्रोकी तरह उनमें भी क्रमप्राप्त वेदनीयकर्मकी दो उत्तर - प्रकृतियों और मोहनीय कर्मके “पर्याडट्टिदिश्रणुभागष्पएसवंधो हु चउविहो कहियो" पाठ दिया है वह ठीक मालूम नहीं होता — उसके पूर्वार्ध मे 'चउभेयो' पदके होते हुए उत्तरार्ध में 'चउविहो' पदके द्वारा उसकी प्नगवृत्ति खटक्ती भी है। १ देखो, माणिकचन्द्र ग्रन्थमाला में प्रकाशित 'भावसग्रहादि ' ग्रन्थ ।
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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