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________________ प्रस्तावना काण्डके प्रथम अधिकारके स्थानपर उसे ही अपनी प्रतिमें लिख लिया अथवा लिखा लिया है और अन्य बातोंके सिवाय, जिन्हें आगे प्रदर्शित किया जायगा, इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया कि स्थितिवधादिसे संबन्ध रखनेवाली उक्त २३ गाथाएं, जो एक कदम आगे दूसरे ही अधिकारमें यथास्थान पाई जाती हैं उनकी इस अधिकारमे व्यर्थ ही पुनरावृत्ति हो रही है। अथवा यह भी हो सकता है कि वह कर्मकाण्ड कोई दूसरा ही वादको संकलित किया हुआ कर्मकाण्ड हो और कर्मप्रकृति उसीका प्रथम अधिकार हो। अस्तु, वह प्रति अपने सामने नहीं है और उतनो मात्र अधूरी भी बतलाई जाती है, अतः उसके विपयमे उक्त संगत कल्पनाके सिवाय और अधिक कुछ भी नहीं कहा जा सकता। ऐसी हालतमे प० परमानन्दजीका उक्त प्रतियों परसे यह फलित करना कि "कर्मकाण्डके प्रथम अधिकारमें उक्त ७५ गाथाएं पहलेसे ही सकलित और प्रचलित हैं"' कुछ विशेष महत्व नहीं रखता। । अव उन टित कही जाने वाली ७५ गाथाओंपर उनके प्रकृतिममुत्कीर्तन अधिकारका आवश्यक तथा संगत अंग होने न होने आदिकी दृष्टिसे, विचार किया आता है: (१) गो० कर्मकाण्डकी १५वीं गाथाके अनन्तर जो सियात्विणस्थिउभयं' नामकी गाथा टित वतलाई जाती है वह ग्रन्थ-संदर्भकी दृष्टिसे उसका सगत तथा आवश्यक अंग मालूम नहीं होती, क्योकि १५वीं गाथामे जीवके दर्शन, ज्ञान और सम्यक्त्वगुणोंका निर्देश किया गया है, बीचमे स्यात् अस्ति-नास्ति आदि सप्तनयोंका स्वरूपनिर्देशके विना ही नामोल्लेखमात्र करके यह कहना कि 'द्रव्य आदेशवशसे इन सप्तभगरूप होता है' कोई संगत अर्थ नहीं रखता । जान पडता है १५वीं गाथामे सप्तभंगगे-द्वारा श्रद्धानकी जो बात कही गई है उसे लेकर किसीने 'सत्तभगीहि पदके टिप्पणरूपमें इस गाथाको अपनी प्रतिमे पंचास्तिकाय ग्रंथसे, जहाँ वह न० १५ पर पाई जाती है, उद्धत किया होगा, जो बादको सग्रह करते समय कर्मप्रकतिके मूलमे प्रविष्ट हो गई । शाहगढ़वाले टिप्पणमे इसे 'प्रक्षिप्त' सूचित भी किया है। (२) २०वीं गाथाके अनन्तर 'जीवपएसेक्कक्के', 'अस्थिपणाईभूओ', 'भावेण तेण पुनरवि', 'एकसमयणिबद्धं' सो बंधो चउभेश्रो' इन पांच गाथाओको जोटित बतलाया है वे भी गोम्मटसारके इस प्रकृतिसमुत्कीर्तन अधिकारका कोई आवश्यक अगमालूम नहीं होती और न सगत ही जान पड़ती हैं, क्योंकि २०वीं गाथामे आठ कर्मो का जो पाठ-क्रम है उसे सिद्ध सूचित करके २१वीं गाथामे दृष्टान्तोंद्वारा उनके स्वरूपका निर्देश किया है, जो संगत है। इन पाँच गाथाओंमें जीवश्वेशों और कर्मप्रदेशोंके बन्धादिका उल्लेख है और अन्तकी गाथामे बन्ध के प्रकृति, स्थिति आदि चार भेदोंका उल्लेख करके यह सूचित किया है कि प्रदेशबन्धका कथन ऊपर हो चुका; चुनॉचे आगे प्रदेशबन्धका कथन किया भी नहीं । और इसलिये १ अनेकान्त वर्ष ३ किरण १२ पृ० ७६३ । २ अनेकान्त वर्ष ३ कि० ८-६ पृ० ५४० । मेरे पास कर्म-प्रकृतिको एक वृत्तिसहित प्रति और है, जिसमें यहाँ पाँचके स्थानपर छह गाथाएँ हैं । छठी गाथा ' सो बधो चउमेश्रो' से पूर्व इस प्रकार है : " श्राउगभागों थोवो णामागोदे समो ततो अहियो । घादितिये वि य तत्तो मोहे तत्तो तदो तदी(दि)ये ॥" ३ " पयडिष्ठिदिअणुभाग पएसवधो पुरा कहियो,” कर्मप्रकृतिकी अनेक प्रतियों में यही पाठ पाया जाता है जो ठीक जान पहता है, क्योंकि ' जीवपएसेक्केक्के' इत्यादि पूर्वकी तीन गाथाश्रोमें प्रदेशबन्धका ६ कथन है । ज्ञानभूषणने टीकामें इसका अर्थ देते हुए लिखा है -" ते चत्वारो भेदा: के ? प्रकृतिस्थित्यनुभागा प्रदेशबन्धश्च श्रय भेद: पुरा कथितः ।" श्रतः अनेकान्तकी उक्त किरण ८-६ में जो
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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