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________________ 44 प्रस्तावना ㄨˋ 1 दो भेद करके प्रथम भेद दर्शनमोह के तीन भेदोंका उल्लेख है, और इसलिये उनसे भी अगली २६वीं गाथाकी सद्धति ठीक बैठ जाती है । (६) कर्मकाण्डकी २६वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृतिमे 'दुविहं चरित्तमोहं' 'अणं अपच्चक्खाणं’‘सिलपुढविभेदधूली' 'सिकिट्टवेत्ते' 'वेणुवमूलोरव्भय', 'किमिरायचक्कतणुमल' 'सम्मत्तं देस-सयल' 'इस्सर दिअर दिसोय' 'छादयदि सयं दोसे' 'पुरुगुणभोगे सेदे' ' वित्थी व पुमं' 'णारयतिरियणरामर' 'खेरइयतिरियमाणुस' 'ओरा लियवेगुव्विय' ये १४ गाथाए पाई जाती हैं जिन्हें कर्मकाण्डके इस प्रथम अधिकारमें त्रुटित बतलाया जाता है | इनमेमे = गाथाएं जो अनंतानुबन्धि आदि सोलह कपायों और स्त्रीवेदादि तीन वेदोंके स्वरूपसे सम्बन्ध रखती हैं वे भी इस अधिकार की कथन-शैली आदिकी दृष्टिसे उसका कोई आवश्यक अस मालूम नहीं होतीं - खासकर उस हालत में जब कि वे जीवकाण्डमे पहले आ चुकी हैं और उसमे क्रमश न० २८३, २८४, २८५, २८६, २८२, २७३, २७२; २७४ पर दर्ज हैं । शेष ६ गाथाएं (पहली दो, मध्यकी 'इस्सर दिअर दिसोयं' नामकी एक और अन्तकी तीन ), जो चारित्रमोहनीय कर्मकी २५, आयु कर्मकी ४ और नाकर्मकी ४२ पिण्डाsपिण्ड प्रकृतियों मेसे गतिकी ४, जातिकी ५ और शरीरकी ५ उत्तर प्रकृतियोंके नामोल्लेखको लिये हुए हैं, प्रकरणके साथ सङ्गत कही जा सकती हैं, क्योंकि इस हद तक वे भी मूलसूत्रों के अनुरूप हैं । परन्तु मूलसूत्रों के अनुसार २७वीं गाथाके साथ सङ्गत होनेके लिये शरीरबन्धनकी उत्तर - प्रकृतियोंसे सम्बन्ध रखनेवाली 'पंच य सरीर बघण' नामकी वह गाथा उनके अनन्तर और होनी चाहिये जो २७वीं गाथा के अनन्तर पाई जाने वाली ४ गाथाओमे प्रथम है, अन्यथा २७वीं गाथामे जिन १५ संयोगी भेदोंका उल्लेख है के शरीरबन्घनके न होकर शरीरके हो जाते हैं, जो कि एक सैद्धान्तिक भूल है और जिसका ऊपर स्पष्टीकरण किया जा चुका है । एक सूत्र अथवा गाथाके आगे-पीछे हो जाने से, इस विपयमे, कर्मकाण्ड और कर्मप्रकृतिके प्राय सभी टीकाकारोंने गलती खाई है, जो उक्त २७वीं गाथाकी टीकामे यह लिख दिया है कि 'ये १५ संयोगी भेद शरीरके हैं', जब वे वास्तव में 'शरीरबन्धन' नामकर्मके भेद हैं । (७) कर्मकाण्डकी २७वीं गाथाके पश्चात् कर्मप्रकृति में 'पच य सरीरबंधरण' 'पंच सघादणाम' ‘समचउर गग्गोह' 'ओरालियवेगुव्विय' ये चार गाथाएं पाई जाती हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है । इनमे से पहली गाथा तो २७वीं गाथाके ठीक पूर्वमे सगत बैठती है, जैसा कि ऊपर बतलाया जा चुका है । शेष तीन गाथाएं यहाँ सगत कही जा सकती हैं, क्योकि इनमे मूल सूत्रों के अनुरूप सघातकी ५, संस्थानकी ६ और अङ्गोपाङ्ग नामकर्मका ३ उत्तरप्रकृतियोंका क्रमशः नामोल्लेख है । पिछली (चौथी ) गाथाकी अनुप - स्थिति मे तो अगली कर्मकाण्डवाली २८वीं गाथाका अर्थ भी ठीक वटित नहीं हो सकता, जिसमे आठ श्रह्नोंके नाम देकर शेषको उपाङ्ग बतलाया है और यह नहीं बतलाया कि वे अङ्गोपाङ्ग कौनसे शरीर से सम्बन्ध रखते हैं । I 1 (८) कर्मकाण्डकी २८वीं गाथाके अनन्तर कर्मप्रकृति में 'दुविहं विहायणाम' 'तह श्रद्ध णाराय' ‘जस्स कम्मरस उदद्ये वज्जमय' 'जस्सुदये वज्जमय' 'जस्सुदये वज्जमया' 'वज्जविसेसरणरहिदा' 'जस्स कम्मस्स उदये श्रवज्जहड्डा' 'जस्स कम्मस्स उदये अणोरण' ये ८ गाथाएं उपलब्ध हैं, जिन्हें कर्मकाण्डमे त्रुटित बतलाया जाता है । इनमे से पहली दो गाथाएँ तो आवश्यक और सङ्गत हैं, क्योकि वे मूलसूत्रो के अनुरूप हैं और उनकी उपस्थिति से कर्मकाण्डकी अगली तीन गाथाओं (२६, ३०, ३१) का अर्थ ठीक बैठ जाता है। शेष ६ गाथाएं, जो छह संहननोंके स्वरूपकी निर्देशक है इस अधिकारका कोई आवश्यक तथा अनिवार्य अग नहीं कही जा सकतीं, क्योंकि सब प्रकृतियोंके स्वरूप अथवा लक्षण निर्देशकी
SR No.010449
Book TitlePuratan Jain Vakya Suchi 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1950
Total Pages519
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size33 MB
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