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________________ १८ पुराण और जैन धर्म तो उनके चरित्र की बहुत प्रशंसा की गई है। यदि ऋषभदेव के चरित्र में ऐसा कोई भी अंश नहीं जो कि वेद और शास्त्र से विरुद्ध हो, तो उसी को सुनकर अर्हन नाम के किसी राजा ने जैन मत का प्रचार किया, इसका क्या तात्पर्य ? क्या ऋषभदेव का चरित और उनकी शिक्षा जैन धर्मके अनुकूल है ? अथवा क्या जैन धर्म के सिद्धान्त ऋषभचरित और शिक्षा के अनुसार हैं ? यदि नहीं तो फिर समझ में नहीं आता कि अर्हन नाम के किसीराजा द्वारा चलाये जाने वाले जैन धर्म का हेतु ऋषभदेव के चरित और शिक्षा के श्रवण और मनन को ही कैसे ठहराया जा रहा है ! यदि अनुकूल है तो उसे वेद विरुद्ध कहना असंगत होगा। यदि कहा जाय कि अर्हन नाम के किसी राज व्यक्ति ने अपनी स्वतन्त्र कल्पना से जैन मत का प्रचार किया ? तब फिर ऋषभदेव के चरित और शिक्षा को बीच में लाना निरर्थक है ? वस्तुतः भगवान् ऋपभदेव का जो सम्बन्ध बतलाया जाता है उससे यह स्पष्ट ध्वनि निकलती है कि वर्तमान जैन धर्म का सम्बन्ध भगवान् ऋषभदेव से ही है और वे ही अर्हन हैं। अनेक यत्न करने पर भी भागवत के रचयिता से इस सत्य पर पर्दा न पड़ सका। "अयमवतारोर जसोपप्लुतकैवल्योपशिक्षणार्थः" यह कथन इस आशय को अच्छी तरह स्फुट कर रहा है। अस्तु कुछ भी हो जैन धर्म को अर्वाचीन बनाने और जन समाज को उससे घृणा दिलाने के लिये भागवत के नाम से किसी धर्मात्मा ने जो यह षड्यन्त्र रचा है। वह संसार में बुद्धिमत्ता का एक नमूना है ।
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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