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________________ पुराण और जैन धर्म हुआ वैसा ही उन्होंने संसार के समक्ष रख दिया, तदनुसार कलियुग के आरम्भ में अर्हन नाम के राजा द्वारा एक वेद विरुद्ध पाखंड मत की उत्पत्ति हुई जो कि वर्तमान समय में जैन मत कहा जाता है इत्यादि । इस पर बहुत से लोग यूं कहते हैं कि इस प्रकार । के प्रमाण शून्य और महत्त्व विना के लेख को महर्षि वेदव्यास जैसे विशुद्धात्मा के दिव्य ज्ञान की उपज बतलाना उनके पवित्र नाम पर सरासर अत्याचार करना है। जो लोग उक्त कयन रूप मुलम्मे को महर्षि वेदव्यास के नाम की मोहर लगा कर सौटच का सोना दिखा कर बाजार में बेचना चाहते हैं, वे कम से कम इतना तो सोच लें कि जब इसको इतिहास और सत्तर्क रूप कसौली पर लगाया गया तब भी वह मोहर काम देगी या नहीं ? कोई भी कथन हो उसकी सत्यता के लिये सर्व मान्य किसी प्रमाण विशेष की आवश्यकता हुआ करती है परन्तु भागवत के उक्त कथन में सिवाय भागवत के अन्य कोई प्रमाण नहीं जिससे कि उक्त कथन की सत्यता प्रमाणित हो सके। कोई ऐतिहासिक ग्रन्थ उक्त कथन में सहमत नहीं । कोङ्क वेकादि देशों का कोई अर्हन नाम का राजा हुआ हो ऐसा किसी इतिहास ग्रन्य में देखने में नहीं आया एवं अर्हन नाम के राजा ने जैन धर्म की नीव डाली हो ऐसा भी सिवा भागवत के अन्यत्र कहीं लिखा हुआ देखने में नहीं आता, हां! जैनों के माने हुए ऋपभादि तीथकरही अहन्नामसे प्रसिद्ध हैं उन्हीं के द्वारा जैन धर्म का प्रचार संसार में हुआ, जैन लोग मानते हैं। जैनों का विश्वास और कथन है कि इस अवसर्पिणी काल में श्री ऋषभ देवजी से लेकर अन्तिम तीर्थकर महावीर स्वामी तफ
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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