SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 20
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पुराण और जैन धर्म सुन लिया। हम नहीं कह सकते कि इसमें सत्यांश कितना है। क्योकि इतिहास के साथ तुलना करने पर उक्त कथन की सत्यतामें बहुत कुछ सन्देह होता है। अतः विचारशील पुरुषों को इस पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। [क्या यह कथन वेदव्यास जी का होगा ?] बहुत से लोगों का कथन और विश्वास है कि उक्त लेख एक आपकाम ऋषि व्यासदेव के विशुद्ध मस्तिष्क की उपज है । भगवान ऋषभदेव के पवित्र चरित का वर्णन करते हुए सर्वज्ञ कल्प महर्षि व्यासदेव ने अपने दिव्य ज्ञान से देखा कि "जब अधर्मवर्द्धक घोर कलिकाल का प्रारम्भ होगा तब भगवान् ऋपभदेव के चरित को सुन और उनकी शिक्षा को ग्रहण कर कोङ्क वेदादि देशों का अर्हन नाम का राजा सर्वतः श्रेष्ठ निज धर्म को त्याग कर स्वमत्यानुसार वेद विरुद्ध पाखंड मत को चलावेगा। उसके प्रभाव से बहुत से ऐसे नीच मनुष्य उसके मत में शामिल होंगे जो स्नान आचमन आदि शौच क्रिया को त्याग देंगे, केशो को अपने हाथों से नोचा करेंगे और वेद,ब्राह्मण तथा विण श्रादि की निन्दा करेंगे एवं स्वेच्छाचारी होने से अन्त में वे घोर नरक मे पड़ेंगे" यह जान कर ऋषि के विशुद्ध अन्तःकरण मे दया का स्रोत उमड़ पाया। (सन्य है ऋपि जन स्वभाव से ही दयालु होते हैं) इसलिये अनन्य कृपालु ऋपि ने कई सहन वर्प प्रथम ही इसे प्रकाशित कर दिया. जिससे कि विवेकशील पुरुप सचेत रहै । इसमें ऋपि का कुछ दोप नहीं । उनको अपने दिव्यज्ञान में भावी परिस्थिति का जैसा भान
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy