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________________ पुराण और जैन धर्म . ५ ते च स्वह्यक्तिनया निज लोकयात्रयान्धपरम्परया श्वस्तास्तमस्यन्धे स्वयमेव प्रपतिष्यन्ति ॥१॥ ___ 'अयमवतारोरजसोपप्लुत कैवल्यो पशिक्षणार्थः।। (स्कं० ५ अ० ६) भावार्थ-जिस ऋषभदेव के चरित्र को सुन कर कोङ्कवेङ्क और कुटकादि देशों का ईनाम का राजा, श्रीऋपभदेव की शिक्षा को लेकर पूर्व कर्मों के अनुसार जब कलियुग में अधर्म अधिक हो जायगा तब अपने श्रेष्ट धर्म को छोड़ कर कुपथपाखंड मत जोकि सब के विरुद्ध होगा को निजमति से चलानेगा ।९। जिसके द्वारा कलियुग में प्रायः ऐसे नीच मनुन्य हो जायेंगे जोकि देव माया से मोहित हो कर अपनी विधि शौच और चारित्र से हीन एवं जिनमें देवताओं का निरादर हो ऐसे कुत्सिा व्रतों-स्नान, आचमन और शौच न रखना और केशलुञ्चन करना इत्यादि-को अपनी इच्छा से धारण करेंगे। जिसमें अधर्म अधिक है ऐसे कलियुग से नष्ट बुद्धि वाले, वेद, ब्राह्मण, यज्ञपुरुप (विष्णु) और संसार के निन्दक होंगे ॥ १०॥ जिनके मत का मूल वेद नहीं है ऐसे वे पुरुप अपनी इच्छा के अनुसार चलने और अन्य परम्परा में विश्वास रखने से आप ही श्राप घोर नरक में पड़ेगे ॥ ११ ॥ भगवान् का यह ऋषभावतार रजोगुण-ज्यान मनुष्यों को मोक्ष मार्ग सिखलाने के लिये हुया । । विवेचक-पाठको ने हमारे परमादरणीय भागवत पुराण के, जैन धर्म की उत्पत्ति से सम्बन्ध रखने वाले भविष्य कथन को
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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