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________________ पुराण और जैन धर्म बड़ी ही श्रद्धा से मुनते हैं। इसमें जैनों के परमादरणीय भगवान् ऋषभदेव का चरित्र घड़ी ही सुन्दरता और विस्तार से वर्णन किया है । चरित यद्यपि जैन ग्रन्थों में उल्लेख किये गये ऋषभ चरित से भिन्न है (वस्तुतः होना भी चाहिये क्योकि भागवत के रचयिता ने उन्हें विष्णका अवतार मानकर चरित वर्णन किया है) परन्तु है बड़ा मनोहर और शिक्षाप्रद । उसमें भगवान ऋषभदेव के मुन्दर उपदेश और अनुकरणीय वैराग्यमय जीवन का चित्र बड़ी खूवी से खींचा है, उक्त ग्रन्थ के पांचवे स्कन्ध में चरित वर्णन के अनन्तर कुछ जैन धर्म का भी जिकर किया है। जिकर क्या उसकी उत्पत्ति का उल्लेख किया है। उल्लेख वड़ा विचित्र है अतः पाठकों के अवलोकनार्थ हम उसे यहां पर उद्धृत करते हैं। यस्य किलानु चरितमुपाकये कोङ्क वेक कुट कानां राजा अर्हन्नामो पशिक्ष्य कला वधर्म उत्कृष्यमाणे भवितव्येन विमोहितः स्वधर्म पथ मकुतो भय मपहाय कुपथ पाखण्ड मसमंजसं निजमनीषया मन्दः सम्प्रवर्तयिष्यते ॥६॥ येन सह वाव कलौ मनुजापसदा देव माया मोहिताः स्वविधिनियोग शौच चारित्र विहीना देव हेलना न्यपव्रतानि निजेच्छया गृहाना अस्नानाचमन शौच केशोल्लुं चनादीनिकलिनाऽधर्मवहु लेनो पहतधियो ब्रह्म ब्राह्मण यज्ञ पुरुष लोक विदूपकाः मायण भविष्यन्ति ॥१०॥
SR No.010448
Book TitlePuran aur Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHansraj Sharma
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1927
Total Pages117
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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