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________________ NAamrnar छठा जन्म ६४ nonnnnnnnnnnnnn इस सम्बन्ध मे श्री नन्दिपण मुनि की कथा अत्यन्त उपयोगी है। वह इस प्रकार है : नन्दिषण मुनि ज्ञान और चारित्र के भंडार थे। किन्तु उन में सेवा-भाव की मात्रा इतनी अधिक थी, कि उनके रोम-रोम से आदर्श सेवा भाव का प्रदर्शन होता था। सेवा करने में उन्हें आनन्द अनभव होता था। वे बड़े चाव से सेवा मे तत्पर रहते और रोगी को देख कर कभी घणा तो करते ही न थे। उनकी इस आदर्श और निष्काम सेवा की प्रशंसा धीरे-धीरे स्वर्ग तक जा पहुँची । एक वार देवराज इन्द्र ने भी मुनि नन्दिषण की अनुपम सेवा की मुक्त कंठ से प्रशंमा की । पर सव मनुष्यों की भाति सब देवो की प्रकृति भी एक-सी नहीं होती। अतएव इन्द्र की सभा मे उपस्थिन, दो देवताओ को इन्द्र का कथन अत्यक्ति पूर्ण जान पड़ा। उन्हे मुनि के सेवाभाव पर विश्वास न हुआ और उन्होंने परीक्षा करने का निश्चय किया। दोनों देव स्वर्गलोक से परीक्षा करने के निमित्त प्रस्थान कर मध्यलोक मे आन पहुँचे । दोनों ने मुनिवेष धारण किया । एक तोंद फला कर पड़ रहा और दूसरा नन्दिषण मुनि के बिलकुल समीप जा पहुंचा । श्री नन्दिपेण मुनि उस समय लाहार लेकर लौटे थे । वे आहार करने के लिए तत्पर होकर हाथ बढ़ा ही रहे थे, कि इतने मे उस मुनिवेषी देव ने डांट कर कहा-अरे आहार लोलुप | तुझे पता नही, कि यहां से नजदीक ही एक मुनिराज अस्वस्थ पड़े है। वहां जाकर उनकी खोज-खबर तो ली नहीं और आहार गटकने वैठगया! इस पर भी अपने को सेवाभावी कहते हुए तुझे संकोच नही होता ? यही आदर्श सेवापरायणता है ? धन्य है तुम्हारी सेवा-प्रियता!,
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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