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________________ पार्श्वनाथ अविचल रहते है,वही इम लोक मे अपने यश और कीर्ति के द्वारा अमर रहते हैं और मुक्ति को प्राप्त करके भी अजर-अमर बन जात है । वे संसार मे नहीं रहते, फिर भी उनका सुन्दर आदर्श भव्य जीवो के लिए पर्य-प्रदर्शक होता है। उनके चरितसे अनेक प्राणी प्रेरणा प्राप्त कर प्रशस्थ पथ में प्रयाण करते हैं । जो लोग शारीरिक कष्ट आने पर धर्म को एक किनारे रख देते है, वे क्या शरीर को नित्य बना पाते है ? क्या उनका शरीर मा विद्यमान रहता है । फिर शरीर-रक्षा के निमित्त धर्म का परित्याग कैसे किया जा सकता है ? शरीर तो पुन. पुन. मिलता रहता है और यदि न मिले तो सर्वोत्तम वान है । पर धर्म तो बडी कठिनाई से मिलता है। धर्म की रक्षा के लिए एक क्या हजारो शरीरों का याग करना भी अनचित नहीं है। शरीर-रचनाको मूल भित्ति पर विचार करनेस विदित होगा, कि वह कैसे कैसे अपवित्र पदार्थो से बना है और कैसे अशुचि पदार्थ उममे भरे हुए हैं। चर्म-मय चादर से ढके हुए शरीर को उघाड़ कर भीतर देखा जाय, तो इसमे माम.तधिर.अस्थि, मल, मूत्र,आदि के अतिरिक्त और क्या भरा हुआ है ? वाहर से देखो, तो मल-मूत्र बहाने वाली नौ नाालयां दिखाई देती है। शरीर मे जो सौन्दर्य कल्पना की जाती है, वह केवल चमड़े पर आश्रित है। ऐसी अवस्था मे यदि मुनि का तन ऊपरी रज-प्रस्वेद आदि से मलिन दिखाई देता है तो घणा करने की कौन सी बात है ? उनकी आत्मा से जो लोकोत्तर गण विद्यमान है वही आदर और प्रतिष्ठा के योग्य हैं । आत्मा तो शरीर से सर्वथा भिन्न है। अत एव शरीर की स्थायी मलिनता से घृणा न करते हुए, हमें मुनियों के आत्मिक उज्ज्वल और पवित्र गुणों पर अनुराग रखना चाहिए ।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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