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________________ पार्श्वनाथ मुनिदेपी देव की उत्तेजनापूर्ण बातें सुन कर नन्दिषेण वडी शान्ति से बोले - " मुनिजी, मुझे नही ज्ञात है, कि कोई मुनिराज ग्लान अवस्था मे यहाँ वही मौजूद हैं । यह तो अभी-अभी आपके मुखारविन्द्र से सुन रहा हूँ । सचमुच अज्ञातभाव से यह मुझ ? मैं हृदय से पश्चाताप करता हूँ । अनुग्रह कर बताइए, ग्लान मुनि कहां है ? मैं उन्हें पहले ही संभाल लेना चाहता हूँ । ' अपराध वन गया मुनिराज नन्द्रियेण इस प्रकार सौम्य वचन कह कर आहार ग्रहण किये बिना ही उठ कर चले । जब वे वहां पहुॅचे, तो वह बीमार बना हुआ मुनि-वेपी देव बोला- "नंदिपेण जी | आर के सेवाभाव की तो बडी प्रशंमा सुनी है । पर क्या कारण है, कि आपने मेरी सुधि ही न ली " नन्द्रि पेण मुनि ने विनम्र भाव से अमा-याचना की और तत्र मधुर स्वर से बोले- 'मुनिनाथ । गोग्य सेवा का आदेश दे कर कृतार्थ कीजिए ।' १०० देवमुनि - आदेश की आवश्यक्ता ही क्या है ? देखते तो हो, मुझे यमन पर बमन और उत्त पर दत्त हो रहे है । नगर मे जाकर जन्त ले आइए। मुझे शरीर स्वच्छ करना है । नन्डिपेण मुनि, ग्लान मुनि की आज्ञा शिरोवार्य कर, नगर मे पहुँचे. मगर देव ने अपनी विक्रिया के बल से ऐसी परिस्थिति उत्पन्न कर दी, कि जहां भी गये, अनल्पनीय पानी ही मिला। क्योंकि देव, नन्विपेण मुनि की परीक्षा करना चाहता था और किसी भी व्यक्ति के आदर्श गुरु की परीना तभी होती है, जब उसे कठिनाई मेला जय । जो कोटिश. विन्न-बाधाओं के उपस्थित होने पर भी अपने माग नहीं करता, जो अपने मत्संकल्प से
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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