SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा जन्म ६७ Amaran. . प्राप्त हो सकती है वही दान देते हैं। एक बार दान देकर अनेक बार उसकी घोषणा करते है। और प्रकारान्तर से कीर्ति के साथ कीर्ति के अंडे-बच्चे भी कमाते हैं । शुद्ध त्याग-भाव-निष्काम अर्पण की महत्ता को उन्होंने समझा नहीं है। सम्यग्दृष्टि जीव ऐसे विकारों से, और ऐसे विचारों से सदा पथक रहता है। वह दान पुण्य धर्म-क्रियादि जो भी प्रवृत्ति करता है उसमें निरपेक्षता निष्कामता अनाकांता और स्वाथ-हीनता ही विद्यमान रहती है। और इसी से उसे वह अनुपम और अपरिमित फल होता है, जो कामना-पिशाची के अधीन पुरुषों को नसीब नहीं हो सकता। अतः प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य है कि वह नि:कांक्षित अग का पालन करके अपने अमूल्य हीरे सम्यक्त्व की रक्षा करे । सम्यक्त्व का तीसरा अंग 'निर्विचिकित्सा' अर्थात् घणा न करना है। कर्मो के फल सभी को भोगने पड़ते हैं। उनका साम्राज्य अखंड है। चाहे कोई निधन हो या सधन हो, रंक हो या राजा हो, योगी हो या भोगी हो, कोई भी कर्म का फल भोगे बिना छुटकारा नही पा सकता । अतएव किसी सदाचारी गहस्थ या मुनि को या अन्य किसी भी व्यक्ति को कर्म के उदयसे कोई रोग उत्पन्न हो जाय, तो उसे देख कर घणा नहीं करनी चाहिए । जो लोग कर्म के फल को भुगत रहे हैं, उन्हे देख कर हम नये कर्मों का वन्ध क्यों करें? रोगी मुनि हो, तो उन्हें देख कर हमें यही भावना करनी चाहिए, कि धन्य है ये मुनिराज, जो घोर वेदना सहन कर के भी मुनि-धर्म का दृढ़ता के साथ पालन कर रहे हैं। रोगी यदि ___ गहस्थ हो तो सोचना चाहिए कि इस प्रकार की विषम और प्रतिकूल परिस्थिति मे भी, यह अपने गहस्थ-धर्म का पालन किस तत्परता के साथ कर रहे है ? जो विपत्ति में भी अपने धर्म पर
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy