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________________ छठा जन्म www. भय, आशा, स्नेह, लोभ आदि कोई भी आकर्षण उसे अपने निर्दिष्ट पथ से हटा नही सकता । वह दृढ़-धर्मी और प्रियधर्मी होता है । वह अपने या अपने पुत्र-पौत्र आदि स्वजनों के लिए, उन्हें रोग आदि से मुक्त करने के लिए भैरों, भवानी, चंडी मुंडी, आदि कुदेव की ओर नजर भी नही फेकता । वह कर्मों के फल पर पूर्ण विश्वास रखता है । मिथ्यात्त्रियों की भांति कुदेवों के शरण मे जाकर वहाँ चलि आदि चढ़ाकर पुण्य के बदले भयंकर पाप का उपार्जन कदापि नही करता । वह जानता है, कि जो देव स्त्रयं दूसरों के रक्त के प्यासे है, दूसरों के मांस के भूखे हैं, जो स्वयं जन्म और मरण की व्याधियों के शिकार है, वे किसी की मृत्यु को कैसे निवारण कर सकेगे ? आयु कर्म यदि प्रबल है, तो कौन मार सकता है ? आयु कर्म यदि समाप्त हो गया है, तो कौन वचा सक्ता है ? साता वेदनीय का उदय है, तो कौन हमारा सुख छीन सकता है ? यदि पूर्व कृत असातावेदनीय, अपना फल देने के लिए उद्यत हुआ है, तो उसे कौन रोक सकता है ? यह इस प्रकार की पारमार्थिक विचारणा के द्वारा, वह कुदेवों का कभी श्रश्रय नही लेता । ^^~^A 1112 kuin^i^^ हे www वास्तव मे कुदेवो की मान्यता मनाने से, उनकी वन्दना या सेवा करने से निरोगता या पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, राज्य- वैभव आदि प्राप्त होना कठिन ही नहीं, बल्कि असंभव है । इसलिए निर्मल सम्यक्ल के धारण करनेवाले धर्मात्माओ का यह कर्त्तव्य है, कि वे यश-कीर्ति, ऋद्धि-समृद्धि, धन-वैभव, आरोग्यता आदि के झूठे लालच में पड़कर,अपने सम्यक्त्व रूपी चिन्तामणि को खो, दीन, हीन, दुखी न बने । सच्चे और झूठे देव आदि के स्वरूप का पहले भली भाति निश्चय करे । और सत्य पर सुमेरु की तरह 1
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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