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________________ - प्राश्यनाथ अडिग विश्वास रखे। वह किसी भी प्रकार की भ्रमणा मे पड़कर असत्य की ओर आकृष्ट न हो, कोई भी प्रलोभन उसे अपने सकल्प से न चिगा सके । इस प्रकार असर्वज, रागी और द्वेषी देव को, देव मानना देवमूढता है । कामी, कोबी, लोभी, लालची, दंभी, विपया मे आसक्त, त्याग का त्याग करने वाले, भोगो को भोगने वाले, - इन्द्रियो के दास, कासनाओ के किकर और संयम से हीन व्यक्तियो को, अथवा प्रागमोक्त वस्त्र-पान आतिसयम के उपयोगी साधनो को मर्यादा से अधिक रखने वाले, मुनिवेपी गुरुओ को सच्चा गुरु मानकर जो उनकी भक्ति करता है, वह पत्थर की नोंका पर आरूढ होकर समुद्र पार करने की इच्छा करता है। इस प्रकार गुरु-मृट व्यक्ति अज्ञ है, वरुणापान है । मनष्य की उत्तमता का आवार सद् गणो का विकास है। जिसके सद्गणों का जितनी मात्रा में विकास हो गया है वह उतनी ही मात्रा मे अधिक उत्तम है । यही कारण है, कि मुनि, साधारण मनुष्यों से श्रेष्ठ माने जात और पूजे जाते है। यदि सामान्य जन की भाति गरु भी लोभी, लालची, कामी कोवी आदि हों तो दोनों मे भेद ही क्या रह जाता है ? र्याद कुछ भेद है,तो वह यही, कि वह गरु और अधिक पापी है क्योंकि वह त्यागी वनकर भी त्यागी नहीं है। वह अपनी मर्यादा का लोप करता है, मंसार को और अपनी आत्मा का वोखा देता है। और दूसरे के समन बुरा उदाहरण उपस्थित करके दुसरो को भी अपनी भाति पतित बनाने का प्रयत्न करता है। अतः ऐस गुर-फिर वे चाह जिम वेष मे हो, चाहे जहाँ रहते हो और चाह जितना अनान तप करते हो, त्याज्य है । जो रात-दिन विपया व कीट बने रहते है, भग गाना, चरन चंड आदि सभी
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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