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________________ www पाश्र्वनाथ ~~www V vA AA करता है, तो श्रोताओं पर प्रभाव नहीं पड सकता । जो त्यागी है, जिसने ससार संबंधी उत्तमोत्तम भोग-विलास के महज प्राप्त साधनो को तिनके की तरह त्याग दिया है, जिसकी वृत्ति, शत्रुमित्र पर समान रूप से करुणा का वारि वरसाती है, जिसने कंचन और कामिनि के आकर्षण पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त करली है, जो शरीर मे रहते हुए भी आत्मा को शरीर से सर्वथा पृथक समझकर, आत्मा के स्वाभाविक स्वरूप मे निरन्तर रमण करना है, जिसके हृदय - वारिधि मे शम-दम-नियम यम-संयम की उत्तुग तरंगें सदैव तरंगित होती रही, और वे तरंगे अब अनन्त एवं अखंड आत्मानन्द मे विलीन हो गई है, जो अपने समस्त कृत्यो को पूर्ण करके चरम लक्ष्य को प्राप्त कर चुका है, जिसकी दृष्टि से मानो अमृत के झरने बहते है, जिसके मुखारविन्द से प्रस्फुटित होने वाला वाक्-सौरभ विश्व को व्याप्त करके आह्लादित करता है, जिसने मोह-मल्ल को पछाड़ दिया है, जिसने असीम ज्ञान-दर्शन और अनन्त शक्ति संपादन करके आत्मिक निर्मलता का अन्तिम रूप सर्वसाधारण के समक्ष रख दिया है, जो संसार मे रहता हुआ भी संसार से अतीत हो गया है, वही वीतराग पुरुषोत्तम मनुष्य मात्र की श्रद्धा का, भक्ति का, पूजा का, श्रेष्ठ पात्र है । उसी का आदर्श सामने रखने से प्राणी भवसागर को तर सकता है । उसीके द्वारा उपदिष्ट धर्म सच्चा धर्म है और उसी के धर्म को धारण करने वाले विरक्त त्यागी जन सच्चे गुरु है । सम्यग्दृष्टि की यही विचारणा है । सम्यग्दृष्टि पुरुष उल्लिखित देव, गुरु, धर्म पर निश्चल प्रतीति रखता है । भयंकर से भयंकर यातनाएं सहते हुए, घोर कष्ट आ पड़ने पर भी वह कभी उस श्रद्धा से अणुमात्र भी चिगता नही ।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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