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________________ छठा जन्म प्रकार स्पष्ट है, कि सम्यग्दर्शन कारण और सम्यग्ज्ञान कार्य है। फिर भी जैसे सूर्य का उदय होने पर, प्रकाश और प्रताप एक साथ आविर्भूत होते है,उसी प्रकार मिथ्यात्व का नाश होने पर सम्यक् ज्ञान और दर्शन भी युगपद् प्रकट हो जाते है। ___ अशुभ क्रियाओं से निवृत्त होना और शुभ एवं शुद्ध क्रिया ओ मे प्रवृत्ति करना सम्यक-चारित्र है। इसका प्रारंभ पांचवे गणस्थान से होता है। पहले चारित्र का किञ्चित् विवेचन किया जा चुका है। धर्म की प्रवृत्ति उसके प्रवर्तक नेता से होती है । अतएव यह स्वाभाविक है, कि प्रवर्तक अपनी मनोवृत्ति के अनुसार कर्तव्य. धर्म का विवेचन करे । मनोवृत्ति और आचरण का घनिष्ठ संबंध है, इसलिए प्रवर्तक के आचरण का उसके द्वारा प्ररूपित धर्म पर गहरा प्रभाव देखा जाता है। किसी भी धर्म के अनुयायी अपने धर्म-प्रवर्तक के जीवन व्यवहार का अनुकरण करते है, अतः धर्मप्रवर्तक यदि आदर्श हो या आदर्श रूप मे अकित किया गया हो,तब तो उसके अनुयायी भी आदर्श वनना अपना ध्येय समझ कर प्रवृत्ति करते है। और यदि धर्मप्रवर्तक के जीवन में ही कोई आदर्श जैसी वस्तु न हो, तो उसके अनुयायी भी आदर्शहीन होते है। फिर वह धर्म उनका कल्याण नहीं कर सकता। एक बात और है । साधारण जनता उपदेश की ओर दृष्टिपात न करके उपदेशक की ओर ही देखती है। इसलिए भी धर्मप्रवर्तक के जीवन मे उसके उपदेश के अनुकूल तत्त्वो का विद्यमान रहना आवश्यक है। जो क्रोध की मूर्ति है, मान का मारा है, माया का पिड है और लोभ के जाल मे फँसा हुआ है, वह क्रोव,मान, माया, लोभ के परिहार का उपदेश नहीं दे सकता। और यदि देने की वृष्टता
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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