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________________ चौथा जन्म इसके लिए दोनों पहिये वरावर हों तभी काम चल सकता है। जहां पत्नी और पति में सदा मतभेद और क्लेश रहता है वहां संतान भी असहिष्णु, चिड़चिड़ी, लड़ाकू और दुगुणी होती है। उस घर से लक्ष्मी भी रूठ कर जाती है । अतः दम्पति में परस्पर मतैक्य, सहिष्णुता, सद्भाव और पवित्र प्रणय का होना आवश्यक है । महाराज करणवेग को ऐसी गुणवती पत्नी प्राप्त हुई कि उनका जीवन आनंद और शान्ति के साथ व्यतीत होने लगा। दोनो मे क्लेश और कदाग्रह का कभी अवसर न आता था। एक-दूसरे को देख-देख कर प्रसन्नता का अनुभव करते थे। पद्मश्री सचमुच पद्मश्री थी। खिले हुए कमल की शोभा के समान उसके मुख-मण्डल पर सदा श्री का विलास होता रहता था। कुछ दिनों बाद महारानी पद्मश्री की कोख से एक पत्ररत्न ने जन्म ग्रहण किया। उसका नाम धरणवेग रक्खा गया। इसके लालन-पालन के लिये भी धातकार्य में कुशल धाय नियुक्त की गई। बालक क्रमशः बढ़ने लगा और अपनी वद्धि के साथ ही साथ अपने माता-पिता के हर्प की भी वृद्धि करने लगा। उन्हीं दिनो श्रीविनयाचार्य, धर्मप्रचार की पवित्रतम भावना से प्रेरित होकर यत्र-तत्र विहार करते हुए, जगत् के संतप्त प्राणियों को अक्षय सुख का मार्ग दिखलाते हुए विचरते थे। आचार्य महा राज एक दिन राजा करणवेग की राजधानी तिलकपरीके उद्यानमे पधारे। उद्यानपाल ने आचार्य के शुभागमन का संवाद राजा के पास पहुंचाया। यह संवाद पा राजा के हृदय की कली-कली खिल गई । वह शीघ्र ही आचार्य महाराज की सेवा मे उपस्थित हुआ। __ यथाविधि वन्दना-नमस्कार करके यथास्थान वैठा और आचार्य - से हाथ जोड़कर प्रार्थना करने लगा-'भगवन् । आपको कष्ट न
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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