SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 50
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पार्श्वनाथ रखोगे | अधिक क्या कहूं तुम स्वयं विद्वान और विवेकवान हो। ___इस प्रकार उपयोगी शिक्षा देकर राजा विद्युतवेग ने युवराज करणवेग के कंधो पर समस्त राज्य भार रखदिया । युवराज की अनुमति लेकर उसने भी श्रुतसागर मुनि के पास जिनदीक्षा धारण करली। राजा विद्यतवेग अब कंचन कामिनी के त्यागी, ब्रह्मचारी मुनिविद्य तवेग के नाम से प्रख्यात हए । दीक्षा लेते ही उन्होने उग्र तप आरम्भ कर दिया। उग्र तपस्या के द्वारा उन्होने समस्त कर्मा का अन्त कर मोक्ष-धाम की ओर प्रयाण किया । वे सदा के लिए सांसारिक वन्धनो पर विजय प्राप्त कर सिद्ध युद्ध हो गये। राजा करणवेग न्याय-नीति के साथ राज्य करने लगा। उस के सुशासन मे प्रजा अत्यन्त संतुष्ट, सुखी और समृद्ध है। राजा शक्तिशाली अवश्य है पर उसकी शक्ति अन्याय के प्रतीकार मे, दीन-हीनो की रक्षा में, स्वदेश की सेवा में लगाती है, दूसरो को हानि पहुंचाने मे नही । राजा दानी है पर प्रशंसा से कोसो दूर रहता है । वह क्षमाशील है, कायर नहीं है। एदार है, उड़ार नही । वह सबकी सुनता है पर कान का कच्चा नही है। वह विद्वान् है पर दूसरों का अपमान नहीं करता । वह प्रजा के लिए प्राणोत्सर्ग करने को तैयार रहता है और प्रजा भी उसके पसीने के स्थान पर अपना रक्त बहाने को उद्यत रहती है। करणवेग की पत्नी उसके अनुरूप है। राजा जैसा धर्मनिष्ट है, रानी भी वैसी ही धर्मशीला है । अनुरूप पत्नी की प्राप्ति पुण्य के उदय से होती है। अन्यथा पति-पत्नी की प्रकृति मे प्रतिकूलता होने से दोनों का जीवन अशान्तिमय, क्लेशकर और भार रूप हो जाता है। पति एक ओर जाता है तो पत्नी दूसरी ओर जाती है। ऐसा होने से गहस्थी की गाड़ी ठीक तरह नहीं चल सकती।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy