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________________ पार्श्वनाथ __ हो तो अपने पुण्य उपदेश से इस सेवक को कृतार्थ कीजिए। चिरकाल से आपके सुधासिक्त सदुपदेश के लिए लालायित हूँ। धन्य भाग्य है जो आज आपका संयोग पाया। श्री विनयाचार्य ने राजा की प्रार्थना अंगीकार करके उपदेश देना आरंभ किया। वे बोले संसार अनादि और अनन्त है । जीव भी अनादि-निधन है। जीव की न कभी उत्पत्ति होती है न विनाश होता है । केवल पर्यायों में परिवर्तन होता रहता है । जीव एक शरीर को ग्रहण करता, उसे त्यागता और फिर नवीन शरीर को ग्रहण करता है । यह क्रम सदा से चला आ रहा है और जव तक सिद्धि प्राप्त नही होती तव तक चलता रहेगा। एक शरीर अधिक से अधिक ३३ सागरोपम तक स्थिर रह सकता है, यों इसका कोई ठिकाना नहीं। जन्म-मरण की विविध वेदनाएँ इसने अनन्त वार भगती है. भुगत रहा है । देव मर कर पशु हो जाता है और पशु मरकर देवता बन जाता है। इस प्रकार जीव ने पथ्वी, जल श्रादि एकेन्द्रिय रूप मे, लट आदि द्वीन्द्रिय रूप में, चिऊँटीकीड़ी श्रादि त्रीन्द्रिय रूप मे भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय रूप में, और पत्नी पशु आदि पंचेन्द्रिय रूप में अनगिनती वार जन्म धारण किया है। भटकते-भटकते प्रवल पुण्य के उदय से मनुष्य पर्याय प्राप्त होती है । यह मानव-तन आत्मा को परमात्मा, नर को नारायण बनाने में सहायक हो सकता है। पर जो जीव इस दुर्लभ अवसर को पाकर विपयभोगों मे गह रहते है वे चिन्ता. मणिरत्न को काच की कीमत पर बेच कर अपनी घोर मृढ़ता पा परिचय देते है। अमीम मागर में डूबता हुआ कोई मनप्य जिहाज को छोड़कर पत्थर की शिला पर आरूढ़ होने की
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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