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________________ पार्श्वनाथ ४४ ले गया। इस प्रकार देव-देवी मिलकर स्वर्गीय सुखों का संवेदन करते हुए अपना समय व्यतीत करने लगे । कुर्क जाति का वह भीपण सर्प मर कर पांचवे नरक में नारकी हुआ । उसने अपने जीवन मे न जाने कितने प्राणियों का संहार किया था. कितनो को घोर वेदना और त्रास पहुॅचाया था । इसके फलस्वरूप उसे नरक के घोर कष्ट भुगतने पड़े । नरक के दुःखो का वर्णन करने के लिए भाषा असमर्थ है। वहां एक पर एक दुःख निरन्तर ही आते रहते है और वे भी इतने भयंकर कि उनकी कल्पना मात्र से रोगटे खड़े हो जाते है | वहां पल भर भी कभी शान्ति नही मिलती । नरक की भूमि ही इतनी व्यथाजनक है कि उसके स्पर्श से एक हजार विच्छुओ के एक साथ काटने के बराबर वेदना होती है । इस क्षेत्रजन्य वेदना के अतिरिक्त नारकी आपस मे घोरतर वेदनाऍ एक-दूसरे को देते है और फिर परमाधामी देवता और भी गजब ढा लेते है । इस प्रकार के कष्टो से वचने का उपाय प्राणीमात्र के हाथ में है । जो विषयो को विष के समान समझकर उनमे अत्यन्त आसक्त नही होता, अन आरंभ और अल्प परिग्रह रख कर अपने को सीमित कर लेता है, अपना जीवन धर्ममय बनाकर सयम के साथ रहता है वह नरक का भागी नहीं हो सकता 1 इसीलिए सर्वज्ञ भगवान् ने कहा है कि विषयों का परित्याग करो। विषयभोग वर्त्तमान मे यद्यपि सुखप्रद प्रतीत होते है पर यह सुख खाज को खुजाने के सुख के समान परिणाम मे घोर दुःख देने वाला है कमठ के जीव ने 'कमठ-जन्म' और 'सर्प - जम्म' मे जो पाप किये उनका फल उसे यह मिला है । पाप के द्वारा त्माका जो पतन होता है उसको एक उदाहरण कमल का जीव है ।
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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