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________________ तासरा जन्म ४३ तर आभूपणो से और देवदूष्य बलों से उसका दिव्य तेज धारी शरीर अतिशय सुन्दर और मनोहर जान पड़ता था। उसे उत्पन्न हुआ जानकर वहाँ के आज्ञाकारी देवी-देवता उसके सामने हाथ जोड़कर खड़े होगये। उन्होने प्रार्थना की-'आपकी जय हो, विजय हो। हम लोग आपके किकर देव है। आज्ञा-प्रदान कर हमे कृतार्थ कीजिए । वहां का कार्यक्रम समाप्त होने पर वह देव देव-सभा मे बाता और सिहासन पर आसीन हो जाता है। आज्ञाकारी देव-देवी उसे अपना स्वामी समझ कर उसके आगे नत-मस्तक होकर खड़े रहते हैं। वे नया स्वामी पाकर आनन्दोत्सव मनाते हैं। अपने स्वामी का मनोरंजन करने के लिए मांतिभाति के नाटको का आयोजन करते हैं। हाथी का जीव इस प्रकार दिव्य ऐश्वर्य का उपभोग करता हुया आमोद-प्रमोद के साथ समय यापन करने लगा। वहाँ के सुखो का समय वर्णन करना सागर के जल को नापने का प्रयत्न करना है। देवो का शरीर मनुष्यो के शरीर की तरह रधिर आदि सप्त धातुमय नहीं होता बल्कि कपर की तरह होता है । देवता पलक नहीं मारते और पृथ्वी से कम से कम चार अगल ऊंचे अवश्य रहते है। उनकी प्राय जब छः महीने शेष रह जाती है तब उनके गले की फूलमाला कुम्हला जाती है। वरणा हस्तिनी भी अपने अन्तिम समय से स्वेच्छा से खाना-पीना त्याग देने तथा तपस्या करने के कारण दूसरे देवलोक मे देवीरूप से उत्पन्न हुई। यह देवी अन्य किसी भी देव की आकांक्षा न करके केवल उसी देव पर यासक्त थी जो पहले हाथी के रूप में इसका साथी था । जब देव को इस देवी की प्रेमभावना विदित हुई तो वह उसे अपने साथ सहस्रार स्वर्ग में
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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