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________________ पार्श्वनाथ सुकोमल सुमन-सेज और कहाँ कठिन भूमि-शयन । यहां दशों दिशाओं को अपनी मनोहर सुरभि से सुरभित कर देने वाला विलेपन और स्नान और कहां स्नान का आजीवन परित्याग ! कहाँ उष्णकाल मे चन्दन, उशीर आदि सुगंधी और शीतल वस्तुओं का सेवन और कहां बालू पर निश्चलता के साथ स्थित होकर कड़ी धूप मे आतापना लेना । कहां शीत काल मे गर्म महलों मे गर्म वस्त्रों का परिधान और वहां कायोत्सर्ग धारण करके नदी किनारे का अवस्थान ! कहां उंगली के इशारे पर नाचने वाले सहस्रों दास, दासियां और कहां अपनी उपाधि को स्वयं लाद कर चलना ! कहा इन कमनीय देशों का सुगंधित तैलों से सुवासित करना और कहां इनका अपने हाथों से लंचन करना कहा यह रत्न-जटित सुवर्णमय आभूषण और कहां मिट्टी तवे या लकड़ी के पात्र । नाथ, यह कष्ट तो सामान्य रूप से हमने वताये हैं। साधुवत्ति तो इससे भी अधिक कठोर है । उसमे प्राणान्तक उपसर्ग उपस्थित होने पर भी मानसिक समाधि मे, ससता भाव मे स्थित रहना पड़ता है, वैरी पर भी मैत्री भाव रखना होता है। मन का दमन, इच्छाओं का निरोध और वास नाओं का विनाश करना तो उस अवस्था मे अनिवार्य ही है। यह सब आप से न होगा। साधुवत्ति मोम के दांतों से लोहे के चने चबाना है और रेत के लड्डुओं को हजम करने के समान दुष्कर है। अतः हमारी प्रार्थना स्वीकार कीजिए। घर मे रह कर गृहस्थधर्म का पालन कीजिए। गृहस्थ धर्म भी तो मुक्ति का ही सोपान है।" महारानियों की मोह-ममतामयी वाते सुनकर राजा अरविन्द बोले-"महारानियो, सुनो । साधुवत्ति की जिस कठोरता का
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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