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________________ दूसरा जन्म २६ Annnnnnnnwww जरा जाव न पीलेइ, वाही जाव न वड्ढा । जाविन्दिया न हायंति, ताच धम्मसमायरे ।। अर्थात जब तक जरा-जन्य आधि-व्याधियों ने श्राकर नहीं सताया है, जहां तक इन्द्रियां अपने-अपने विषय को ग्रहण करने मे समर्थ हैं-उनकी शक्ति क्षीण नहीं हुई है, तब तक जितनी धर्म आराधना हो सके, कर लेना चाहिए । सन्त महात्माओं के इस सरल और सुस्पष्ट कथन का अनुसरण करके अनेक परुपों ने अपनी विशाल भोग सामग्री और प्राज्य साम्राज्य को त्याज्य समझा है और संयम की साधना मे वे तन्मय होगये हैं। वे धन्य है। मै भाग्यहीन आज तक राज्य लिप्सा का शिकार हो रहा हूँ । मुझे अब तक संयम के अनुपम आनन्द को प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला | मै भी अव सांसारिक बिडम्बनाओं से अपना पिण्ड छुड़ाकर प्रात्म कल्याण के अर्थ जैनेन्द्री दीक्षा धारण करूँ। राजा अरविन्द ने अपने विचार ज्यों ही प्रकाशित किये त्यों ही प्रजा में एक प्रकार की खलबली-सी मच गई। अन्तःपुर में रानियां दास हो गई। वे दीनता पूर्वक कातर स्वर में कहने लगी-'प्राणनाथ । हम अबलाओं को त्यागकर आप कहां जाते हैं ? आपने राज-वैभव का उपभोग किया है और साधवत्ति तलवार की धार पर चलने के समान कठिन है । आपका यह सुकोमल शरीर उसके योग्य नहीं है। कहां तो उत्तमोत्तम रथों, अश्वों और गजेन्द्रों की सवारी और कहां बिना पादत्राण पैदल बिहार ! कहां सरस, सुस्वादु मनोहर और नाना प्रकार का पौष्टिक षट् रस भोजन और कहां सूखा-रूखा भिक्षान्न । कहां दुग्ध धवल
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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