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________________ दूसरा जन्म अत्युक्तिपूर्ण चित्र तुमने मेरे सामने अंकित करके मुझे भयभीत करना चाहा है, उससे मेरे संकल्प में तनिक भी शिथिलता नहीं आने पाई । बाह्य पदार्थो से उत्पन्न होने वाले सुख और दुःख कल्पना-प्रसूत हैं। उनमे कोई तथ्य नहीं है। एक व्यक्ति जिसे सुख मानता है उसी को दूसरा दुःख मान बैठता है और जिसे एक दुःख मानता है दूसरे उसे सुख समझ कर गले लगाते हैं । एक रस लोलुप जिस भोजन को नीरस समझ कर घणा पूर्वक ठकरा देता है उसे एक दरिद्र परुप आन्तरिक आह्लाद के साथ ग्रहण करके कृतार्थ हो जाता है। भोजन मे ही यदि दुःख-सुख उत्पन्न करने की क्षमता होती तो वह सभी में एक-सी भावना उत्पन्न करता । इससे यह प्रतीत होता है कि सांसारिक सुख-दुख हमारे मनो यंत्र में निर्मित होते हैं। इसके अतिरिक्त हम मोह वश जिसे सुख कहते है वह है कितने दिन का ? आज है कल नही । बड़े-बड़े सम्राटों को पल भर में फकीर होते देखा जाता है और आय के अंत मे तो वे अवश्य ही बिदा होते हैं । सुख के सभी साधन जब हमे छोड़ कर जाने वाले है तो क्यों न हम स्वयं इच्छापूर्वक उनका परित्याग करदे ? इच्छा पूर्वक त्याग करने से वियोग-व्यथा से हृदय व्यथित नहीं होता है। अन्तःकरण संतोप जन्य सुख का संवेदन करता है और आत्मकल्याण का पथ प्रशस्त हो जाता है। राई भरे सुख के लिए सुमेरु बरावर दुःखों को निमंत्रण देना विवेकशीलता नहीं है और न क्षणभर की संपत्ति के लिए दीर्घकाल की विपत्ति का आह्वान करना बुद्धिमत्ता है। · मुनि वृत्ति दुःखो का आगार नहीं मगर सुखों का सागर है । निवत्तिजन्य अनिवर्चनीय आनंद का प्रवाह वहाने वाली सुरसरिता साधुवत्ति ही है । संयम और संतोप मे जो सुख है वह
SR No.010436
Book TitleParshvanath
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChauthmal Maharaj
PublisherGangadevi Jain Delhi
Publication Year1941
Total Pages179
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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