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________________ समाज दर्शन वालो ने इस पर आपत्ति की। तभी किसी ने कटाक्ष मारते हुये कहा कि तुमको (पल्लीवालो को) जब इतनी ही आपत्ति है, तो अपना अलग मन्दिर क्यो नही बनवा लेते। बस इतना ही कहना था कि पल्लीवाल बन्धुओ ने एक अलग मन्दिर बनवाने का निश्चय कर लिया। इसी के फलस्वरूप वि सवत् 1895 (सन् 1839 ई ) मे धूलियागज में 'श्री पल्लीवाल दिगम्बर जैन मदिर' की विधिवत् स्थापना हुई। प्रारम्भ मे इस मन्दिर में मात्र एक प्रतिमा 23 वे तीर्थकर श्री पार्श्वनाथजी की थी। कालांतर मे इस मन्दिर का विस्तार हुआ तथा कई अन्य वेदियाँ बनी। इस मन्दिर में प्राचीनतम् मूर्ति वि संवत् 1526 की भगवान पार्श्वनाथ की है। पद्मासन अवस्था मे यह मूर्ति धातु की है तथा हमकी अवगाहना चार इन्च है। मन्दिर मे और भी कई धातु प्रतिमायें सोलहवी शताब्दी की है। प्राचीनतम् पाषाण प्रतिमाये मात्र दो है । वि सवत् 1836 मे निर्मित भगवान पार्श्वनाथ और भगवान मुनिसुव्रतनाथ की ये प्रतिमाये क्रमश श्याम तथा श्वेत पाषाण की है। पूजा-पाठ के साथ-साथ धूलियागज के पल्लीवाल शास्त्र स्वाध्याय में भी विशेष रुचि लेते रहे है। यहाँ के मन्दिर से बहुत पहले से ही स्वाध्याय व प्रवचन होते रहे है। लेकिन लगभग पिछले सो वर्षों से यहाँ पर विधिवत रूप से प्राध्यात्मिक शैली चल रही है। पहले यहाँ पर प० नन्नूमल जी तथा प० चिरजीलाल जी शास्त्र प्रवचन करते थे। उनके बाद यहाँ को शैली में कई विद्वान लोगो का समागम हुआ। श्री रतनलाल जी मुनीम तथा डाक्टर प्यारेलाल जी उनमे मुख्य है। यहाँ की आध्यात्मिक शैली ने सन् 1970 से विशेष ख्याति प्राप्त की। उस समय इस शैली के प्रमुख लोगो मे डा प्यारेलाल जी,
SR No.010432
Book TitlePallival Jain Jati ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnilkumar Jain
PublisherPallival Itihas Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages186
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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