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________________ 86 87 लोगो के द्वारा जो देवालय बनाये गये हैं, मूढ (व्यक्ति) (उनको) (तो) देखता है। (किन्तु) (खेद है कि) (वह) अपनी देह को नही देखता है जहाँ शान्त परम आत्मा ठहरा हुआ (है)। देहरूपी मन्दिर मे परम आत्मा बसती है । (किन्तु) तू (उसके लिए) मन्दिरो को देखता है । मेरे मन मे यह हँसी (प्राती) है (कि) सिद्ध होने पर भी (तू) भीख के लिए घूमता है। विषय-कषायो को नष्ट करके हे जीव । तू जिनेन्द्र का ध्यान कर । (इस प्रकार) (तू) कही भी दुख नही देखेगा । हे मूर्ख । (तू समझ कि) अजरामर पद (इससे ही) होता है । (यदि) (विमिन्न) इन्द्रियो के प्रसार रोके गए हैं (तो) हे मना (तू) (इसी को) परमार्थ समझ । ज्ञानमय आत्मा को छोडकर दूसरे शास्त्र अटपटे (ही) (लगते) (हैं) । 89 90 91 हे जीव! तू विषयो का चिन्तन मत कर । विषय अच्छे नही होते हैं । (विषयो का) सेवन करते हुए (व्यक्तियो) के लिए (वे) मधुर (होते हैं)। किन्तु हे मूर्ख (वे) पीछे दु खो को देते हैं । (हे भगवन! ) (मेरे) मलरहित सम्यग्दर्शन (आध्यात्मिक श्रद्धा) प्रत्येक जन्म मे रहे। प्रत्येक जन्म मे (मैं) समाधि के लिए प्रयत्न करूं । (तथा) (जिनके द्वारा) मन से उत्पन्न (आसक्तिरूपी) व्याधि नष्ट कर दी गई है, (ऐसे) ऋषि प्रत्येक जन्म में मेरे गुरु (होवें)। 92 (तू समझ कि) दो मार्गों से गमन नही किया जाता है। दो मुखवाली सूई से पुराना वस्त्र नहीं सिया जाता है । (ठीक इसी प्रकार) हे अज्ञानी' इन्द्रियसुख और तनाव-रहितता दोनो (एक साथ) नही होते हैं । पाहुडदोहा चयनिका ] [ 25
SR No.010431
Book TitlePahuda Doha Chayanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKamalchand Sogani
PublisherApbhramsa Sahitya Academy
Publication Year1991
Total Pages105
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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