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________________ देशीभाषा और अपभ्रंश ४५ उक्त ग्रंथों से कुछ पीछे के एक ग्रंथ ' लखमएव ( लक्ष्मण देव ) कृत ' मिणाह चरिउ' की पूर्व पीठिका में इस प्रकार कहा गया है 'ण समाणमि छंदु न बंधभेउ उ हीणाहिउ मत्तासमेउ । • उ सकउ पायउ देस - भास उसवण्णु जाणमि समास । इत्यादि यहां भी हमारा मत है कि कवि का देसभापा से अपने ग्रंथ की भाषा से ही तात्पर्य है । इस सम्बन्ध में सबसे स्पष्ट उल्लेख पादलिप्त कृत तरङ्गवती कथा में पाया जाता है + । यथा पालित्तएण रइया वित्थरओ तह य देसिवयणेहिं नामेण तरंगवई कहा विचित्ता य विउला य ॥ यहां स्पष्ट कहा गया है कि पादलिप्त ने तरङ्गवती कथा की रचना देसीवचनों में की। पूर्वोक्त अवतरण इस बात को सिद्ध करने के लिये पर्याप्त हैं कि व्याकरणाचार्य जिस भाषा को अपभ्रंश कहते हैं उसी भाषा को उसमें रचना करने वाले कवि देशी भाषा कहते थे । वह भाषा हेमचन्द्र द्वारा स्वीकृत देशी भाषा के लक्षणों से युक्त भी है, + डा. जैकोबी, सनत्कुमारचरित, भूमिका, पृ. १८.
SR No.010430
Book TitlePahuda Doha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherBalatkaragana Jain Publication Society
Publication Year1934
Total Pages189
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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